विश्व कठपुतली दिवस (21 मार्च ) पर विशेष
कठपुतली न केवल एक कला वस्तु या रंगमंच का हिस्सा है, बल्कि यह मानवता के महत्वपूर्ण प्रश्नों जैसे जीवन और मृत्यु, दृश्य और अदृश्य, और आत्मा तथा पदार्थ के संबंध को समझाने का माध्यम भी रही है। यह एक प्राचीन कला है जो लगभग सभी संस्कृतियों में विकसित हुई और आज भी मनोरंजन, शिक्षा और जागरूकता फैलाने के रूप में जीवित है।
कठपुतली का इतिहास अत्यंत पुराना है, और इसका उल्लेख भारतीय संस्कृतियों के प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। पाणिनी की अष्टाध्यायी में पुतला नाटक का जिक्र किया गया है, जबकि महाभारत और पंचतंत्र जैसे ग्रंथों में भी कठपुतलियों के खेल का वर्णन किया गया है। भारत में, विशेष रूप से राजस्थान में, यह कला कई शताब्दियों से प्रचलित है, जहां इसे राजदरबारों से लेकर ग्रामीण समुदायों में नृत्य, नाटक और शारीरिक करतब दिखाने के लिए उपयोग किया जाता है।
राजस्थानी कठपुतलियां विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। इनकी वेशभूषा पारंपरिक राजस्थानी होती है, और इनका चेहरा ओवल आकार का, आंखें बड़ी और होंठ भरे होते हैं। राजस्थान में कठपुतली के प्रदर्शन के लिए साधारण से साधारण मंच का उपयोग किया जाता है। यह कला नटों और भाटों द्वारा प्रदर्शित की जाती है, जो नृत्य और नाटक के साथ-साथ कठपुतली के माध्यम से कहानियों को प्रस्तुत करते हैं।
कठपुतली कला का योगदान केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज में जागरूकता फैलाने, ऐतिहासिक घटनाओं और मिथकों को जीवित रखने का भी एक प्रभावी तरीका है। आज के समय में, हालांकि, इस कला को सरकारी संरक्षण और समुचित प्रोत्साहन की कमी का सामना करना पड़ रहा है। कठपुतली कलाकारों को रोजगार की तलाश में गाँवों से पलायन करना पड़ रहा है, और नई पीढ़ी इस कला से दूरी बना रही है।
विश्व कठपुतली दिवस हर साल 21 मार्च को मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य इस प्राचीन कला को वैश्विक पहचान देना और कलाकारों के योगदान का सम्मान करना है। कठपुतली कला को आधुनिक समय में पुनर्जीवित करने के लिए नए विचारों और कथानकों की आवश्यकता है, ताकि यह कला हमारे समाज और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बनी रहे।