भारत प्राचीन काल से ही आध्यात्मिक और वैज्ञानिक रुप से परिपूर्ण राष्ट्र रहा है, जहाँ जातक और उपासकों को उसके पापकर्मो का शमन करने के लिए धार्मिक रूप से विशेष उपचार उपलब्ध हैं। इन्हीं उपचारों में पापमोचनी एकादशी का विशेष महत्व है।
चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को पापमोचनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन व्रत, उपवास, पूजन और दान करने से मनुष्य अपने समस्त पापों से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति करता है।
यह एकादशी आत्मशुद्धि और आत्मोत्थान का मार्ग प्रशस्त करती है। इसके प्रभाव से मनुष्य के अंदर सद्भावना, सकारात्मकता और शांति का संचार होता है। साथ ही, यह व्रत हमें अपने कर्मों की शुद्धि के महत्व का बोध कराते हुए मोक्ष प्राप्ति के पवित्र उद्देश्य की ओर अग्रसर करता है।
पापमोचनी एकादशी का अर्थ है — पापों से मुक्ति दिलाने वाली एकादशी। इसका विशेष आध्यात्मिक और वैज्ञानिक महत्त्व हैं।
आध्यात्मिक महत्व -
इस एकादशी को करने से व्यक्ति जाने-अनजाने में किए गए पापों से मुक्त होता है क्योंकि पापमोचनी एकादशी संयम और साधना के साथ उपवास और प्रार्थना से व्यक्ति को अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करना सीखता है। इच्छाओं के नियंत्रण से मन की चंचलता कम होती है।
सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु की आराधना और उपवास के माध्यम से मन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। इससे उपासक की आध्यात्मिक उन्नति होती है। इस दिन व्रत, पूजन,दान ,भजन-कीर्तन से व्यक्ति के नकारात्मक कर्मों का शुद्धिकरण होता है। व्यक्ति आत्मिक रूप से पवित्रता की अनुभूति करता है।
वैज्ञानिक महत्व -
एकादशी के दिन विधिपूर्वक उपवास करने से मस्तिष्क में सेरोटोनिन और डोपामाइन हार्मोन संतुलित होते हैं।
सेरोटोनिन यह एक न्यूरोट्रांसमीटर है, जिसे "प्रसन्नता का हॉर्मोन" भी कहा जाता है।यह मस्तिष्क को संतुलित करने, प्रसन्न रखने और मानसिक शांति बनाए रखने में सहयोग करता है। इसके संतुलित से व्यक्ति आनंदित , शांत और सकारात्मक अनुभव करता है। जबकि इसके असंतुलन से अवसाद अनिद्रा चिड़चिड़ापन आता है।
डोपामाइन इसे "रिवॉर्ड हॉर्मोन" या "प्रेरणा या मोटिवेशन हॉर्मोन" कहा जाता है। इससे व्यक्ति प्रेरणा और उत्साह का अनुभव कराता है। जब हमें कोई पुरस्कार मिलता है या हम कुछ अच्छा करते हैं, तो डोपामाइन रिलीज होता है। यह व्यक्ति की प्रेरणा, ध्यान और सीखने की क्षमता को बढ़ाता है। इसकी कमी के कारण व्यक्ति में आलस्य, मोटिवेशन की कमी, उदासीनता और थकान आती है।
एकादशी चंद्रमा के घटने या बढ़ने की प्रक्रिया के समय आती है, पृथ्वी की भांति मानव शरीर में भी दो तिहाई भाग जल का है। अतः चंद्रमा का प्रभाव मानव शरीर के जल तत्व पर पड़ता है। जल में उत्पन्न चावल का निषेध होने से और निर्जला उपवास के माध्यम से इस प्रभाव को संतुलित किया जाता है।
उपवास से शरीर की ऑटोफैगी अर्थात् शरीर की कोशिकाओं (Cells) का स्वयं को साफ़ और पुनः निर्मित (Rejuvenate) करने की प्रक्रिया के सक्रिय होने से पुरानी और क्षतिग्रस्त कोशिकाएँ साफ हो जाती हैं और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
पापमोचनी एकादशी की कथा-:
भविष्योत्तर पुराण के अनुसार इसे भगवान श्रीकृष्ण ने पांडव पुत्र युधिष्ठिर को सुनाया था। जिसकी कथा इस प्रकार है -
प्राचीन काल में, च्यवन ऋषि के पुत्र ऋषि मेधावी तपस्या में लीन थे। उनका तप बहुत कठोर था, जिसके प्रभाव से स्वर्गलोक में हलचल मच गई। देवताओं को चिंता हुई कि अगर उनकी तपस्या सफल हो गई, तो वे स्वर्ग पर अधिकार कर सकते हैं।
देवराज इंद्र ने ऋषि की तपस्या भंग करने के लिए मंजुघोषा नामक अप्सरा को भेजा। मंजुघोषा ने अपनी सुंदरता और मधुर संगीत से ऋषि को मोहित कर लिया। ऋषि मेधावी, मंजुघोषा के प्रेम में इतने लीन हो गए कि वे अपना तप और समय का बोध भूल गए।
कई वर्षों तक दोनों साथ रहे। जब मंजुघोषा ने वापस जाने की इच्छा प्रकट की, तब ऋषि को अनुभव हुआ कि वह अपनी तपस्या और ब्रह्मचर्य व्रत से विचलित हो गए हैं। क्रोध में आकर उन्होंने अप्सरा मंजुघोषा को श्राप दे दिया कि वह पिशाचिनी बन जाए।
इसके पश्चात् ऋषि को अपनी त्रुटि का ज्ञान हुआ। उन्होंने अपने पिता च्यवन ऋषि से पापों से मुक्ति पाने का उपाय पूछा। च्यवन ऋषि ने उन्हें पापमोचनी एकादशी का व्रत करने का मार्गदर्शन दिया।
ऋषि मेधावी ने विधि-विधान से इस एकादशी का व्रत किया। इसके प्रभाव से उनके सारे पाप नष्ट हो गए और अप्सरा मंजुघोषा को भी पिशाच योनि से मुक्ति मिली।
इस प्रकार पापमोचनी एकादशी के व्रत से मनुष्य को अपने पापों से मुक्ति मिलती है और मोक्ष प्राप्त होता है।
दिनांक 25 मार्च को सूर्योदय के पूर्व एकादशी तिथि प्रारंभ होने के कारण एकादशी का व्रत इसी दिन करना श्रेष्ठ होगा। सूर्योदय के पश्चात यदि एकादशी की तिथि पड़ती है तो यह उपवास गृहस्थ साधक के लिए श्रेष्ठ नहीं होता।
डॉ नुपूर निखिल देशकर