गाड़ी को चलाने के लिए ईंधन की आवश्यकता होती है, ईंधन स्वयं जल के गाड़ी को ऊर्जा प्रदान करता है। ईंधन स्वयं जल के धुएं में बदल जाता है और गाड़ी को गतिवान बनाता है। यही हाल हमारे देश के लोगों का है जो सदैव राजनीतिक अखाड़े का ईंधन बनते है एवं राजनीतिक दलों और उनकी विचाराधाराओं को गति प्रदाय करते है। ईंधन की भांति लोगों को कुछ नहीं मिलता, उनकी जिन्दगी धुएं की मानिद काली ही रहती है। सारी ऊर्जा राजनीतिक दलों को मिलती है और साल दर साल वे चलायमान होकर जीवन के सारे वैभव प्राप्त करते है।
26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ, जिसके अंतर्गत ऐसी व्यवस्था कायम करना जिसमें सरकार जनता के द्वारा, जनता के लिये एवं जनता की होगी एवं भारत को एक लोक कल्याणकारी राज्य बनाने की ओर अग्रसर रहे। सरकारें संविधान की कसमें खाती है, संविधान निर्माताओं का महिमामंडन करती है, परन्तु संविधान में उल्लेखित जन कल्याण एवं जन अधिकारों के कार्यान्वयन में जो कदम उठाये जाने चाहिये उसमें पीछे रहती है। सरकारें अपने ईधन को चुनावी काल में याद करती है और चुनाव पश्चात् अपनी गाड़ी को स्वयं के विकास के लिये तेजी से आगे बढ़ाती है|
जनता भी इस चुनावी राजनीति के भ्रम में फंस चुकी है। पूरे पांच सालों तक रोजमर्रा की जिंदगी में समस्याओं से दो-चार होतें है, सरकार के खिलाफ नाराजगी दिखाते है, लेकिन चुनावी मौसम आते ही अपने चश्में को हटाकर राजनीतिक दलों का चश्मा पहन लेते है। इस चश्मे की खास बात यह है कि इससे पांच सालों तक झेली गयी समस्याएं छुप जाती है और राजनीतिक दलों द्वारा बनाये गये मुद्दे दिखने लगते है जिनका हमारी जिंदगी से बहुत कम लेना देना होता है। शिक्षा, स्वास्थ्ष, आवास, रोजगार, आधारभूत ढ़ांचा आदि जैसे मुख्य मुद्दे चुनावी पटल से गायब हो जाते है जिनका स्थान धर्म, जाति जैसे मुद्दे ले लेते है।
साम्प्रदायिक हिंसा का खेल आजादी से पहले अंग्रेजों ने और उसके बाद राजनीतिक दलों ने खूब खेला है। लाखों लोग इस हिंसा का ईंधन बन चुके है और इसकी आग में झुलस और जान गवां चुके है। इन जनसंहारों को प्रायोजित करने वालों को कोई नुकसान नहीं पहुंचता बल्कि आम जन अपने जान और माल से हाथ धो बैठता हैं। इतना नुकसान झेलने के बाद भी ये ईंधन न केवल पहले की तरह ज्वलनशील बना हुआ है बल्कि इसकी तीव्रता और बढ़ती जा रही है।
जनता को ईंधन की भांति उल्लेख करने का कारण ही यही है कि जनता अपनी मूलभूत समस्याओं में जल रही है लेकिन वो राजनीतिक दलों को कुर्सी की दौड़ के लिए ईंधन मुहैय्या कराती है। कभी राष्ट्रवाद के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी भाषा के नाम पर, कभी क्षेत्रियता के नाम पर राजनीतिक दलों ने लोगों को गुमराह किया है और जनता पिछले 70 सालों से एक विश्वासपात्र ईंधन की तरह सरकारों को उनके गंतव्य तक पहुचाने का कार्य कुशलता से निभाती रही है। जनता इस चक्र का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है जिसका उद्देश्य उनका शोषण है और सरकारों का पोषण।
संचार के नये माध्यमों ने इस ईधन को और ज्चलनशील बना दिया है। विभिन्न सोशल मीडिया के माध्यमों द्वारा तथाकथित विश्वविघालय चलाये जा रहे है जिसका उद्देश्य समाज में सूचनाएं एवं समाचार नहीं बल्कि भ्रम एवं अफवाहें फैलाना है। ये तथाकथित विश्वविघालय अच्छे-खासे पढ़े लिखे इंसान की सोच को दूषित कर रहे है। इन तथाकथित विश्वविघालयों द्वारा ईंधन की ज्वलनशीलता को नियंत्रित किया जाता है जब चाहे देश के राजनीतिक और सामाजिक तापमान को गर्म एवं ठंडा किया जाता है।
जिस जरह जैविक ईधन जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार है उसी तरह यह जनता रूपी ईधन स्वयं को एवं देश को नुकसान पहुचाते है। आज हर तरफ ऊर्जा के सतत् स्त्रोतों एवं उनके उपयोग की बात हो रही है उसी प्रकार जनता को भी सतत् बनकर अपनी उन्नति एवं आने वाली पीढ़ियों के विकास का ईंधन बनना होगा। जनता की सरकार बननी चाहिए न कि सरकार का ईंधन। जनता को सतत् एवं स्वच्छ ईंधन बनकर समाज और व्यवस्था को साफ सुथरा बनाना है। सरकारों का ईंधन न बनकर देश निर्माण का ईंधन बन देश को एक कल्याणकारी राज्य बनना है जहां हर नागरिक को उच्चस्तरीय शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, रोजगार जैसी मूलभूत जरूरतें बिना किसी भेदभाव के प्राप्त हो। ऐसा ईंधन बनना है जो देश के सामाजिक, आर्थिक एवं बौद्धिक विकास में योगदान दे।
लेखक -आसिफ खान