मंदिर श्रृंखला -दंतेवाड़ा की दंतेश्वरी मंदिर | The Voice TV

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मंदिर श्रृंखला -दंतेवाड़ा की दंतेश्वरी मंदिर

Date : 13-Mar-2023

छत्तीसगढ़ प्राचीन काल से ही देवी देवताओं का एक प्रमुख स्थान रहा है। यहां पर प्राचीन काल से ही शिव उपासना के साथ-साथ देवी उपासना को काफी महत्व मिला है।  छत्तीसगढ़ में अलग-अलग समय में अलग-अलग राजाओं और ग्राम मुखिया द्वारा एक विशेष कथाओं के कारण अनेक मंदिरों का निर्माण कराया गया है। छत्तीसगढ़ में देवताओं के ज्यादा मंदिर नहीं है लेकिन यहां पर देवियों पर आधारित अनेक मंदिर हैं और इन देवियों के मंदिर में अनेक रूप में पूजी जाती है।इन सभी देवियों के मंदिर में देवी के चमत्कार के कारण लगातार श्रद्धालुओं की संख्या में काफी वृद्धि देखी गई और इसी के कारण इन स्थलों को शक्तिपीठ का मान्यता भी प्रदान किया गया।वर्तमान में छत्तीसगढ़ के प्रमुख शक्तिपीठ रतनपुर का महामाया मंदिर, चंद्रपुर का चंद्रहासिनी मंदिर, डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी मंदिर और दंतेवाड़ा के दंतेश्वरी मंदिर को विशेष रूप से श्रद्धा प्राप्त है दंतेवाड़ा शहर छत्तीसगढ़ राज्य के दंतेवाड़ा जिले का मुख्यालय है। यहां की जनसंख्या 2011 में जनसंख्या के अनुसार 13637 बताई गई है। यह शहर मुख्य रूप से देवी दंतेश्वरी के लिए और नक्सलवाद के लिए पूरे भारत में प्रसिद्ध है। यहां पर प्रचलित भाषा है हिंदी, छत्तीसगढ़ी और हल्बी। यह शहर अपनी स्थिति के लिए भी जाना जाता है। यह शहर चारों तरफ से घने पहाड़ियों से घिरा हुआ है।दंतेश्वरी मंदिर दंतेवाड़ा जिला में स्थित है। देवी का यह मंदिर जगदलपुर से लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।देवी मां के संबंध में कहा जाता है कि यहां पर श्रद्धालुओं द्वारा सच्चे मन से मांगी गई मुरादे अवश्य पूरी होती है। देवी दंतेश्वरी माता का यह मंदिर के संबंध में माना जाता है कि यहां पर माता सती के दांत गिरे थे। जिसके पश्चात से इस पूरे क्षेत्र को दंतेवाड़ा के नाम से जाना गया। यहां पर स्थित माता की प्रतिमा को काले ग्रेनाइट के पत्थर से बनाया गया है।यह मूर्ति छः हाथों वाली है जिसमें माता ने दाएं हाथ में त्रिशूल, शंख, खड्ग और बाएं हाथ में घंटी, पद्य और राक्षस के बाल को पकड़ रखा है।यहां पर देवी को विभिन्न आभूषणों से सजाया गया है। इसके साथ ही देवी माता के सर पर एक चांदी का छत्र बनाया गया है। देवी के मंदिर में देवी की मूर्ति के अलावा गणेश, विष्णु, शिव आदि की प्रतिमा भी स्थापित की गई है। इस मंदिर के गर्भ गृह में सिले हुए वस्त्र पहनकर प्रवेश करने पर प्रतिबंध लगाया गया है। यहां पर धोती और बिना सिले हुए कुर्ते पहन कर जा सकते हैं। इसके साथ ही चमड़े से बनी हुई वस्तुएं भी इस गर्भ गृह में नहीं ले जा सकते।

दंतेश्वरी मंदिर दंतेवाड़ा का इतिहास।

पौराणिक कथानुसार, काकतीय वंश के राजा मां भगवती के परम भक्त हुआ करते थे और उन्हें अपनी कुल देवी के रूप में पूजते थे। सन् 1313 ईसवी में मुगलों के आक्रमण के समय महाराजा प्रताप रुद्र देव जी के छोटे भाई अन्नम देव जब वारंगल से बस्तर अपने सैन्य शक्ति के साथ अपनी आराध्य कुल देवी माता दंतेश्वरी का आशीर्वाद लेकर बस्तर रियासत की ओर कूच किए।

 इतिहासकार और बड़े बुजुर्गो की अनुसार, इस यात्रा में मैया दंतेश्वरी ने अपने भक्त अन्नम देव को साक्षात् दर्शन दिए थे और परिस्थिति अनुरूप प्रसन्न होकर उन्हें यह वर प्रदान किया कि जहां तक भी वह इस क्षेत्र में जा सकेगा,देवी उसके साथ साथ चलेगी और वह जमीन उसकी साम्राज्य के रूप में होती चली जायेगी परंतु देवी ने राजा के सामने इस पर एक शर्त भी रखी थी कि इस प्रक्रिया के दौरान राजन पीछे मुड़ कर बिल्कुल भी नहीं देखेंगे,अगर वे ऐशा नहीं करते है तो माता उस भूभाग पर स्थापित होकर अदृश्य हों जाएंगी।

राजा अन्नम देव जहां-जहां भी जाते, मां भगवती उनके पीछे-पीछे चलती रहतीं और उतनी जमीन पर राजा की आधिपत्य होती जाती। इस तरह यह क्रम चलता रहा। माता जब राजन के पीछे - पीछे चलती, उनकी पायल कि ध्वनि राजा को आभाष कराती रहती थी कि मैया उनके साथ साथ है।

अन्नम कई दिनों तक यूं ही चलते-चलते वे दंडकारण्य क्षेत्र बस्तर के घने वनों के बीच प्रवाहित शंखिनी - डंकिनी नदी के संगम तट पर पहुंचे। उन नदियों को पार करते समय राजा को देवी की पायल की आवाज सुनाई नहीं पड़ी। राजन को ऐशा लगा कि कहीं उनकी इष्ट देवी रूक तो नहीं गई। इसी भ्रम के चलते उन्होंने पीछे मुड़कर देख लिया।उन्होंने देखा कि देवी तो नदी पार कर रही थीं।

वरदान के शर्त के मुताबिक माता उसी क्षण उस भूभाग पर स्थापित हो कर अदृष्य हो गई और इस तरह माता के अन्नत भक्त राजा अन्नम देव ने शंखिनी- डंकिनी नदी के समागम के स्थान पर आज से लगभग 700 वर्ष पहले अर्थात् 14वी शताब्दी में माता की भव्य और अलौकिक मैया दंतेश्वरी मंदिर के रूप में स्थापना करवाई दंतेश्वरी मंदिर के पास ही शंखिनी और डंकनी नदी के संगम पर मां दंतेश्वरी के चरणों के चिन्ह मौजूद है और यहां सच्चे मन से की गई मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होती है।

यह मंदिर काफी खास है साथ ही इसका इतिहास भी काफी प्राचीन है। इस मंदिर के इतिहास में झांककर देखा जाए तो पता चल जाएगा कि इस मंदिर में प्राचीन काल से ही पशुओं की बलि के साथ-साथ नरबलि देने का भी प्रावधान था। लेकिन नरबलि पर 18वीं सदी में रोक लगा दिया गया इसके पश्चात से धीरे-धीरे पशु बलि देना भी बंद हो गया और नवरात्रि के पंचमी की रात में कद्दू की बलि दी जाती है।

 इस मंदिर में होली के लगभग 10 दिन पहले 9 दिनों का फाल्गुन मड़ई कराया जाता है। इसमें लगभग 250 से अधिक देवि और देवताओं के साथ माता दंतेश्वरी की डोली हर दिन नगर भ्रमण पर निकलती है।

यह जानकर हैरानी होगी कि यह मंदिर लगभग 136 वर्ष से लगातार सागोन के 24 स्तंभों पर खड़ा हुआ है। ये स्तंभ देखने में सीमेंट और चूने के प्रतीत होते हैं लेकिन वास्तव में यह सब 24 सागोन के है। इस स्तंभ को उड़ीसा के कलाकारों द्वारा एक विशेष रूप से तैयार किया गया था। इस मंदिर का निर्माण वारंगल राजा हीरालाला तीतर ने 1880 में कराया था। ऐसा कई लेखों द्वारा पता चलता है।

माता दंतेश्वरी को कुल देवी के रूप में पूजा जाता है। इसलिए यह मंदिर प्रदेश वासियों के लिए विशेष आस्था का केंद्र है। माना जाता है कि माता सती ने अपने पति भगवान शिव के अपमान होने पर यह जलते हुए यज्ञ कुंड में जब अपने आप को झोंक दिया था तब उसके पश्चात भगवान शिव ने माता सती के आधे जले हुए शरीर को अपने कंधे पर रखकर तांडव किया था।

 जिसके पश्चात से माता सती के अंग धरती पर आकर गिरे थे। माना जाता है कि माता सती के 52अंग धरती पर आकर गिरे थे। जिनमें से सभी 52 जगहों में शक्तिपीठ का निर्माण कराया गया है। छत्तीसगढ़ में स्थित दंतेवाड़ा में इसी दौरान माता सती का दांत गिरा था। जिसके पश्चात से यहां पर दंतेश्वरी मंदिर का निर्माण कराया गया।

गौशाला के रास्ते दोनों ओर घने जंगलों के बीचोबीच आप बाबा भैरवनाथ के मंदिर का दर्शन लाभ भी ले सकते है।इस मंदिर के चारों ओर पांच शिवलिंग के साथ साथ कई देवी देवताओं की भी प्रतिमाएं स्थापित है।

बाबा के इस प्रागंण में दक्षिण दिशा की ओर माता वन देवी की भी छोटी सी मंदिर स्थित है।इसी मंदिर से एक रास्ता घने जंगल में लगभग 1 किलोमीटर की दूरी पर बाबा टूंडल भैरव नाथ जी की भी मंदिर पुरातन चट्टानों से बनी है जिसकी जानकारी अमूमन बहुत कम लोगों को है। यह आज जर्जर अवस्था में पड़ी हुई है।

 

 
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