पृथ्वी को ठंडा करने में हीरे की धूल कैसे मददगार होगी, क्या यह ग्लोबल वार्मिंग का लागत और समाधान है
Date : 20-Oct-2024
पृथ्वी के बढ़ते तापमान को लेकर वैज्ञानिक चिंतित हैं और चाहते हैं कि मानव गतिविधियों पर नियंत्रण लगे, जो ग्लोबल वार्मिंग का कारण बन रही हैं। उन्हें एहसास है कि स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि सिर्फ यह उपाय पर्याप्त नहीं हैं, इसलिए ठंडा रखने के लिए नए उपायों पर भी ध्यान दिया जा रहा है। इनमें से एक उपाय जियोइंजीनियरिंग है, जिसमें वायुमंडल में ऐसे पदार्थ का छिड़काव किया जाएगा, जो सूर्य की रोशनी को वापस अंतरिक्ष में परावर्तित करेगा। पारंपरिक रूप से सल्फर के उपयोग का सुझाव दिया जाता है, लेकिन हाल ही में एक अध्ययन में हीरे की धूल के उपयोग की सिफारिश की गई है।
जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित इस अध्ययन के अनुसार, वायुमंडल में हीरे की धूल का इंजेक्शन करने से तापमान को संभावित रूप से 1.6ºC तक कम किया जा सकता है। ETH ज्यूरिख के जलवायु वैज्ञानिक सैंड्रो वटियोनी के नेतृत्व में हुए इस शोध ने जांचा है कि क्या हीरे, सल्फर जैसी सामान्य सामग्रियों के मुकाबले, स्ट्रेटोस्फेरिक एरोसोल इंजेक्शन के लिए एक सुरक्षित और प्रभावी विकल्प हो सकते हैं।
सल्फर भी इस कार्य में मदद कर सकता है, क्योंकि इसका मकसद ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए सूर्य की रोशनी को वापस अंतरिक्ष में रिफ्लेक्ट करना है। यह प्रक्रिया ज्वालामुखी विस्फोटों से प्रेरित है, जो वायुमंडल में सल्फर डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं।
हालांकि, सल्फर के उपयोग से कुछ समस्याएं भी उत्पन्न हो सकती हैं। यह वायुप्रदूषण का कारण बन सकता है और ओजोन परत की कमी तथा एसिड रेन जैसे गंभीर जोखिम पैदा कर सकता है। ऐसे में, हालिया अध्ययन में हीरे की धूल को एक बेहतर विकल्प बताया गया है।
फिर हीरा ही क्यों?
हीरे रासायनिक रूप से निष्क्रिय होते हैं और सल्फर की तुलना में कोई खतरा नहीं उत्पन्न करते। वटियोनी और उनकी टीम ने विभिन्न सामग्रियों के प्रभाव का आकलन करने के लिए जटिल जलवायु मॉडल का उपयोग किया। हीरे अपने परावर्तक गुणों और हवा में स्थिर रहने की क्षमता के कारण अधिक आशाजनक साबित होते हैं, जिससे वे सल्फर से बेहतर कूलिंग एजेंट बन सकते हैं।
हालांकि हीरे एक संभावित समाधान प्रस्तुत करते हैं, लेकिन उनकी लागत एक महत्वपूर्ण बाधा है। सिंथेटिक हीरे की धूल की अनुमानित कीमत लगभग 4.2 करोड़ रुपये प्रति टन है, और यदि इसका उत्पादन 5 मिलियन टन प्रति वर्ष तक बढ़ाना हो, तो इसके लिए भारी वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता होगी। कॉर्नेल विश्वविद्यालय के इंजीनियर डगलस मैकमार्टिन के अनुसार, 2035 से 2100 के बीच हीरे की धूल के उपयोग की लागत 147.1250 खरब रुपये तक पहुँच सकती है।
फिर भी सल्फर का विकल्प प्राथमिक है
इसमें कोई संदेह नहीं कि यह कीमत सल्फर की तुलना में काफी अधिक है, जो आसानी से उपलब्ध है और फैलाने में सरल है। मैकमार्टिन का कहना है कि सल्फर अपनी कम लागत और उपयोग में आसानी के कारण अभी भी प्राथमिक विकल्प रह सकता है। हीरे जैसी वैकल्पिक सामग्रियों के अध्ययन सहित जियोइंजीनियरिंग अनुसंधान एक विवादास्पद विषय बना हुआ है।