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नैनीताल की संस्कृति एवं विरासत बहुत समृद्ध है

Date : 22-Nov-2023

 जनपद नैनीताल की संस्कृति एवं विरासत बहुत समृद्ध है । जनपद के विभिन्न शहरों, कस्बों एवं गांवों में सभी सम्प्रदाय के लोग मिल जुल कर रहते हैं । जिले की लगभग अस्सी प्रतिशत आबादी हिंदू है जबकि शेष लोग सिक्ख, मुसलिम, क्रिसचन, बौद्ध आदि धर्मों को मानने वाले हैं । जिले में निवास करने वाले अधिकतर लोग कुमाऊंनी परम्परा को मानने वाले हैं ।

यहॉ पर शादियॉ अधिकतर कुण्डली मिलाकर माता पिता द्वारा करायी जाती हैं । विवाह के मुख्य कार्य में गणेश पूजा, सुवाल पथाई, धुलिअर्ग, कन्या-दान, फेरे एवं विदाई है । पारम्परिक कुमाऊनी बारात यहॉ के प्रसिद्ध छोलिया नृत्य से जीबंत हो उठती है । छोलिया नृत्यकोंं के प्रमुख वाद्य यंत्रों में नगाड़ा, ढोल, दमुआ, रणसिंग, भेरी, हुड़का हैं तथा नृत्यक नृत्य में तलवार एवं ढाल का प्रयोग करते हैं । लेकिन वर्तमान में लोगों को आधुनिक संगीत पर बैण्ड बाजे के साथ नृत्य करते हुए भी देखा जा सकता है ।

पारम्परिक कुमाऊंनी व्यंजन बहुत पौष्टिक और बनाने में सरल होता है। किसी भी शुभ अवसर पर बनने वाले भोजन में खीर, सिंघल, पूरी, पुआ, बडा, पालक का कापा, रायता, खटाई शामिल रहता है । ठेठ कुमाऊनी व्यंजनों में भट्ट दाल से बना चुडकाणी एवं भट्टिया, गहत के डुबके, मट्ठा की झोली, गाबे एवं सिसौने की सब्जी, पिनालू की सब्जी आदि प्रसिद्ध हैं । 

 

ऐतिहासिक काल से आंचल के कपड़ों पर रंगीन चित्रण की परंपरा एक अद्वितीय कुमाऊनी परंपरा है । सभी अनुष्ठान समारोह में महिलाएं पिछौड़ा पहनती हैं, जो रंगवाली के रूप में भी जाना जाता है। यह मलमल का कपड़ा पीले रंग का होता है, जोकि तीन मीटर लंबा और डेढ मीटर चौड़ा होता है ,जिसमें लकडी की मुहर से लाल रंग के गोल डिजाइन बनाये जाते है। इसके केंद्र में स्वास्तिक, सूरज, चाँद, घंटी और शंख की आकृतियॉ होती है।

नवंबर के महीने में गार्जिया मंदिर में कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर बडे उत्सव का आयोजन होता है । जिले में पूर्ण भक्ति के साथ नंदा देवी मेला मनाया जाता है । यह मेला नैनादेवी मंदिर, नैनीताल और भवाली में आयोजित किया जाता है । कुमाऊँनी लोग सितंबर या अक्टूबर की शुरुआत में श्रद्धा का पखवाडा मनाते हैं और पूर्वजों को याद करते हैं ।

दशहरा, दीपावली, नामकरण, जनेऊ आदि शुभ अवसरों पर महिलाएँ घर में ऐंपण (अल्पना) बनाती है। इसके लिए घर, ऑंगन या सीढ़ियों को गेरू से लीपा जाता है। चावल को भिगोकर उसे पीसा जाता है। उसके लेप से आकर्षक चित्र बनाए जाते हैं। विभिन्न अवसरों पर नामकरण चौकी, सूर्य चौकी, स्नान चौकी, जन्मदिन चौकी, यज्ञोपवीत चौकी, विवाह चौकी, धूमिलअर्ध्य चौकी, वर चौकी, आचार्य चौकी, अष्टदल कमल, स्वास्तिक पीठ, विष्णु पीठ, शिव पीठ, शिव शक्ति पीठ, सरस्वती पीठ आदि परम्परागत गाँव की महिलाएँ स्वयं बनाती है। हरेले आदि पर्वों पर मिट्टी के डिकारे बनाए जाते है। ये डिकारे भगवान के प्रतीक माने जाते है। इनकी पूजा की जाती है। कुछ लोग मिट्टी की अच्छी-अच्छी मूर्तियाँ (डिकारे) बना लेते हैं।( स्त्रोत -उत्तराखंड शासन )

 
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