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आदिवासी संस्कृति की अद्भुत मिसाल है भगोरिया हाट

Date : 03-Mar-2025

जब हम भारतीय संस्कृति की बात करते है तो सबसे पहले हम भारत की संस्कृति की मूल जड भगोरिया हाट(गलालिया हाट) ध्यान मै आता है। यह केवल एक हाट ही नहीं है व्यक्ति को व्यक्ति से तथा समाज को समाज से जोड़ने का सबसे बड़ा त्यौहार, उत्सव है। भारत वर्ष मै कई त्यौहार, संस्कृति, रीती रिवाज़, परम्पराएं है लेकिन भगोरिया हाट विश्व भर मै एक अलग ही पहचान रखता है। इस दौरान विभिन्न प्रकार की मिठाई की दुकानों भी लगती है। लेकिन आदिवासी समाज काकणी, माजम की मिठाई का लुप्त उठाते है।

विश्व की संस्कृति की आत्मा भारत है तो भारत की संस्कृति की आत्मा आदिवासी समाज है
भारत की संस्कृति का पुनरुद्धार किसी राष्ट्र की ताकत और पहचान को आकार देने में सर्वोपरि महत्व रखता है। किसी समाज की सांस्कृतिक विरासत उसके मूल्यों, परंपराओं और साझा अनुभवों की परिणति है, जो एकता और उद्देश्य की भावना को बढ़ावा देती है। आदिवासी संस्कृति, सरलता, प्रकृति-प्रेम, और पारंपरिक मान्यताओं से परिपूर्ण है। आदिवासी समाज, जंगल और पहाड़ों में रहता है। ये अपने निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में रहते हैं। आदिवासी संस्कृति में प्रकृति को पूजनीय माना जाता है। आदिवासी समाज की एक विशिष्ट संस्कृति, परंपरा, रीति रिवाज, रहन-सहन, खान-पान होता है। गोदना, शरीर पर टैटू बनवाने की एक परंपरा है। यह भारत के आदिवासी समुदायों में काफ़ी प्रचलित है इसे स्थायी आभूषण और सौंदर्यीकरण के तौर पर भी देखा जाता है। भगोरिया हाट में विशेष रूप से गोदवाने का काम युवक युवतियों द्वारा किया जाता है।
 
होली से सात दिन पहले मनाया जाता है भगोरिया हाट
 
भगोरिया हाट रबी फसल की कटाई के बाद आदिवासी द्वारा आदिवासियों के लिए पारंपरिक रूप अर्थात् होली के सात दिन पूर्व लगने वाले हाट को भगोरिया हाट(गलालिया हाट) कहते है। इस दौरान ढोल-मांदल गूंजते हैं। आदिवासी पारंपरिक लोकनृत्य करते हैं। सातों दिन अलग-अलग जगह इसका आयोजन होता है। आदिवासी बड़ी संख्या में वहां पहुंचते हैं। मेले जैसा नजारा हो जाता है। आदिवासियों की परंपरा के बीच अलग ही उत्साह नजर आता है। अब तो आसपास के शहरों से भी लोग यहां पहुंचने लगे हैं। यह मध्य प्रदेश के मालवा निमाड़ अंचल झाबुआ, अलीराजपुर, बड़वानी, धार, खरगोन आदि जिलों के गावों में मुख्य रूप से आयोजित होता है।
 
बसंत के मनभावन मौसम में नई फसल आने की खुशी में आयोजित भगोरिया हाट, मूलभूत दैनिक आवश्यकताओं की खरीदारी हेतु आयोजित होता है यह हाट विश्व भर मै प्रसिद्ध है।
 
आदिवासी महिलाओं और पुरषों के पारंपरिक आभूषण
 
अलंकरण अपना विशेष महत्व रखता है। सामान्यतः आदिवासी स्त्री और पुरुष विविध प्रकार के गहने पहनते है। ये कथिर, चांदी और कांसे के बने होते है। जिनमे कथिर का प्रचलन सर्वाधिक है। आज के वर्तमान संदर्भों में जहां पारम्परिक आदिवासी आभूषणों को आधुनिक समाज ने फैशन के नए आयामों के रूप में स्वीकार कर लिया है। आदिवासी संस्कृति के अनुरूप कमर में काले रंग का मोटा घाटा( बेल्ट नुमा) पहनाए जाते है स्त्री के पैरो के कड़ला, बाकड़िया, नांगर, तोड़ा, पावलिया, तागली, बिछिया महिलाओं के सौभाग्य के प्रतीक आभूषण होते है तो वही पुरषों के हाथों में बोहरिया, कमर में कंदोरा, कानो में मोरखी आदि आभूषण पहनते है।
 
भगोरिए हाट की शुरुवात
 
भगोरिया हाट की शुरुआत राजा भोज के समय हुई थी उस समय दो भील राजाओं कसूमर और बालून ने अपनी राजधानी भगोर में मेले का आयोजन करना शुरू किया था। धीरे-धीरे आस-पास के भील राजाओं ने भी उनका अनुसरण करना शुरू किया। इसी वजह से हाट और मेलों को भगोरिया कहने का चलन बन गया। अब यह बड़ा रूप धारण कर चुका है। जो आदिवासी अंचल का एक प्रमुख उत्सव हो चुका है। इस हाट को देखने के लिए पलायन से भी आदिवासी समाज घर आते है और बड़े धूम धाम से मनाते है।
 
आदिवासी संस्कृति का समावेश होता है भगोरिए हाट में
 
भगोरिए हाट में आदिवासी समाज की संस्कृति की झलक देखने मिलती है। इसमें युवक और युवतियां एक ही प्रकार की वेश-भूषा में आते है तथा भगोरिए का भरपूर आनन्द लिया जाता है। झूले में झूलना, पान खाना, और बांसुरी बजाना, ढोल के साथ नाचना भगोरिया का प्रमुख आकर्षण का केंद्र होता है। 
 
आदिवासी समाज की युवक-युवतियां गहनों से सज धज कर हाट का आनंद लेने पहुंचती है। भगोरिया नृत्य मै ढोल की थाप, बांसुरी, घूँघरूओं की ध्वनियाँ सुनाई देती है। इस दौरान ढोल को विशेष रूप से तैयार किया जाता है। पुराने लोगों का कहना है कि कई सालों पहले पहाड़ों-जंगलों में बसे आदिवासी क्षेत्रों में संचार तथा यातायात के साधन उपलब्ध नहीं थे। दूर-दूर रहने वाले परिवार, दोस्त से नहीं मिल पाते थे। ऐसी स्थिति में भगोरिया हाट के माध्यम से आपस में एक-दूसरे से मिलकर खुश हो जाते हैं। इस विशेष हाट में सभी आदिवासी सज-धजकर आते हैं। बहुत अधिक संख्या होने से मेला जैसे भर जाता है। मेले रूपी हाट को उत्सव के रूप मे मनाते हैं और दिन भर मांदल की थाप, बांसुरी की धुन पर आदिवासी लोकनृत्य करके खुशियां मनाते हैं। इस दौरान ताड़ी (देशी कच्ची शराब) का भी भरपूर दोहन होता है।
 
लेखक:-निलेश कटारा
 
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