"हर-हर महादेव" के युद्धघोष के साथ देश में अटक से लेकर कटक तक केसरिया ध्वज लहरा कर "हिन्दू स्वराज" लाने का जो सपना वीर छत्रपति शिवाजी महाराज ने देखा था, उसको काफी हद तक मराठा साम्राज्य के चौथे पेशवा या प्रधानमंत्री वीर बाजीराव प्रथम ने पूरा किया था। जिस वीर महायोद्धा बाजीराव पेशवा प्रथम के नाम से अंग्रेज शासक थर-थर कांपते थे, मुगल शासक बाजीराव से इतना डरते थे कि उनसे मिलने तक से भी घबराते थे। हिंदुस्तान के इतिहास में पेशवा बाजीराव प्रथम ही अकेले ऐसे महावीर महायोद्धा थे, जिन्होंने अपने जीवन काल में 41 युद्ध लड़े और एक भी युद्ध नहीं हारा, साथ ही वीर महाराणा प्रताप और वीर छत्रपति शिवाजी के बाद बाजीराव पेशवा प्रथम का ही नाम आता है जिन्होंने मुगलों से बहुत लंबे समय तक लगातार लोहा लिया था।
बाजीराव का जन्म
ब्राह्मण परिवार में बालाजी विश्वनाथ के पुत्र के रूप में कोकणस्थ प्रान्त में हुआ था, जो छत्रपति शाहू के प्रथम पेशवा थे। 20 वर्ष की आयु में उनके पिता की मृत्यु के पश्यात शाहू ने दुसरे अनुभवी और पुराने दावेदारों को छोड़कर बाजीराव को पेशवा के रूप में नियुक्त किया। इस नियुक्ति से ये स्पष्ट हो गया था की शाहू को बाजीराव के बालपन में ही उनकी बुद्धिमत्ता का आभास हो गया था। इसलिए उन्होंने पेशवा पद के लिए बाजीराव की नियुक्ति की। बाजीराव सभी सिपाहीयो के बिच लोकप्रिय थे और आज भी उनका नाम आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है।
बाजीराव, वह थे जिन्होंने 41 या उस से भी ज्यादा लड़ाईयां लड़ी थी, और एक भी ना हारने की वजह से विख्यात थे। जनरल मोंटगोमेरी, ब्रिटिश जनरल और बाद में फील्ड मार्शल ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद लिखीत रूप में यह स्वीकार भी किया था। अपने पिता के ही मार्ग पर चलकर, मुघल सम्राटो को समझकर उनकी कमजोरियों को खोजकर उन्हें तोड़ने वाले बाजीराव पहले व्यक्ति थे।
सैयद बन्धुओ की शाही दरबार में घुसपैठी या दखल-अंदाजी बंद करवाना भी उनके आक्रमण का एक प्रभावी निर्णय था। बाद में ग्वालियर के रानोजी शिंदे का साम्राज्य, इंदोर के होल्कर(मल्हारराव), बारोदा के गायकवाड (पिलाजी), और धार के पवार (उदाज्जी) इन सभी का निर्माण बाजीराव द्वारा मराठा साम्राज्य के खंड के रूप में किया गया, क्यूकी वे मुघल साम्राज्य से प्रतीशोध लेकर उनका विनाश कर के उनकी “जागीरदारी” बनाना चाहते थे
जब महाराज शाहू ने 1720 में बालाजी विश्वनाथ के मृत्यूपरांत उसके 19 वर्षीय ज्येष्ठपुत्र बाजीराव को पेशवा नियुक्त किया तो पेशवा पद वंशपरंपरागत बन गया। अल्पव्यस्क होते हुए भी बाजीराव ने असाधारण योग्यता प्रदर्शित की। पेशवा बनने के बाद अगले बीस वर्षों तक बाजीराव मराठा साम्राज्य को बढ़ाते रहे। उनका व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली था; तथा उनमें जन्मजात नेतृत्वशक्ति थी। अपने अद्भुत रणकौशल, अदम्य साहस और अपूर्व संलग्नता से, तथा प्रतिभासंपन्न अनुज श्रीमान चिमाजी साहिब अप्पा के सहयोग द्वारा शीघ्र ही उसने मराठा साम्राज्य को भारत में सर्वशक्तिमान् बना दिया।
इसके लिए उन्हें अपने दुश्मनों से लगातार लड़ाईयाँ करना पड़ी। अपनी वीरता, अपनी नेतृत्व क्षमता व कौशल युद्ध योजना द्वारा यह महान वीर हर लड़ाई को जीतता गया। विश्व इतिहास में महान श्रीमंतबाजीराव पेशवा एकमात्र ऐसे योद्धा है जो कभी नहीं हारें । छत्रपति शिवाजी महाराज की तरह वह बहुत ही कुशल घुड़सवार थे । घोड़े पर बैठे-बैठे भाला चलाना, बनेठी घुमाना, बंदूक चलाना उनके बाएँ हाथ का खेल था। घोड़े पर बैठकर श्रीमंतबाजीराव के भाले की फेंक इतनी जबरदस्त होती थी कि सामने वाला घुड़सवार अपने घोड़े सहित घायल हो जाता था।
मराठा साम्राज्य के पेशवा
महाराणा प्रताप और शिवाजी के बाद बाजीराव पेशवा का ही नाम आता है जिन्होंने मुगलों से लंबे समय तक लोहा लिया। बाजीराव बल्लाल भट्ट एक महान योद्धा थे। निजाम, मोहम्मद बंगश से लेकर मुगलों और पुर्तगालियों तक को कई-कई बार शिकस्त देने वाले बाजीराव के समय में महाराष्ट्र, गुजरात, मालवा, बुंदेलखंड सहित 70 से 80 फीसदी भारत पर उनका कब्जा था। इतिहास में ऐसे कई वीर हुए हैं जिन्होंने मुगलों को दिल्ली तक ही समेट दिया था। उनमें से एक थे बाजीराव। हालांकि आरोप है कि भारत के ऐसे वीरों को आजादी के बाद के शिक्षामंत्रियों और वामपंथी इतिहाकारों ने बड़ी चालाकी से इतिहास से हटाकर मुगल इतिहास को महिमामंडित किया।
बाजीराव ने शिवाजी के नाती शाहूजी महाराज को गद्दी पर बैठाकर बिना उसे चुनौती दिए पूरे देश में उनकी ताकत का लोहा मनवाया था। देश में पहली बार 'हिन्दू पद पादशाही' का सिद्धांत भी बाजीराव प्रथम ने दिया था। हालांकि जनता किसी भी धर्म को मानती हो उसके साथ वे न्याय करते थे। उनकी अपनी फौज में कई अहम पदों पर मुस्लिम सिपहसालार थे, जो युद्ध से पहले 'हर-हर महादेव' का नारा भी लगाना नहीं भूलते थे। अटक से कटक तक केसरिया लहराने का और हिन्दू स्वराज लाने का सपना जो छत्रपति शिवाजी महाराज ने देखा था उसे काफी हद तक पेशवा बाजीराव ने पूरा किया।
होलकर, सिंधिया, पवार, शिंदे, गायकवाड़ जैसी ताकतें जो बाद में अस्तित्व में आईं, वे सब पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट की देन थीं। ग्वालियर, इंदौर, पूना और बड़ौदा जैसी ताकतवर रियासतें बाजीराव के चलते ही अस्तित्व में आईं। बुंदेलखंड की रियासत बाजीराव के दम पर जिंदा थी, छत्रसाल की मौत के बाद उनका तिहाई हिस्सा भी बाजीराव को मिला।
हिन्दुस्तान के इतिहास के बाजीराव अकेला ऐसा योद्धा था जिसने 41 लड़ाइयां लड़ीं और एक भी नहीं हारीं। वर्ल्ड वॉर सेकंड में ब्रिटिश आर्मी के कमांडर रहे मशहूर सेनापति जनरल मांटगोमरी ने भी अपनी किताब 'हिस्ट्री ऑफ वॉरफेयर' में बाजीराव की बिजली की गति से तेज आक्रमण शैली की जमकर तारीफ की है और लिखा है कि बाजीराव कभी हारा नहीं। आज वो किताब ब्रिटेन में डिफेंस स्टडीज के कोर्स में पढ़ाई जाती है।
बाद में यही आक्रमण शैली सेकंड वर्ल्ड वॉर में अपनाई गई जिसे 'ब्लिट्जक्रिग' बोला गया। अमेरिकी सेना ने उनकी पालखेड़ की लड़ाई का एक मॉडल ही बनाकर रखा है जिस पर सैनिकों को युद्ध तकनीक का प्रशिक्षण दिया जाता है। बाजीराव का युद्ध रिकॉर्ड छत्रपति शिवाजी और महाराणा प्रताप से भी अच्छा माना जाता है। नर्मदा पार सेना ले जाने वाला और 400 वर्ष की यवनी सत्ता को दिल्ली में जाकर ललकारने वाला बाजीराव पहला मराठा था।
निजाम के खिलाफ
पेशवा बाजीराव 4 जनवरी 1721 में निजाम-उल-मुल्क असफ जह प्रथम से मिले और अपने विवादों को एक समझौते के तौर पर सुलझाया, पर तब भी निजाम नहीं माना और मराठों के अधिकार के खिलाफ डेक्कन से कर वसूलने लगा। सन् 1722 में निजाम को मुगल शासन का वजीर बना दिया गया, परंतु सन् 1723 में सम्राट मुहम्मद शाह ने निजाम को डेक्कन से अवध भेज दिया।
निजाम ने वजीर का पद छोड़ दिया और वो दोबारा डेक्कन चला गया। सन् 1725 में निजाम ने मराठा कर अधिकारियों को खदेड़ने का प्रयास किया और वह इस प्रयास में सफल हुआ। इसके एवज में 27 अगस्त सन् 1727 में बाजीराव ने निजाम के खिलाफ मोर्चा शुरू किया और उन्होंने जालना, बुरहानपुर और खानदेश सहित निजाम के कई राज्यों पर कब्जा कर लिया |
28 फरवरी 1728 में बाजीराव और निजाम की सेना के बीच एक युद्ध हुआ जिसे 'पल्खेद की लड़ाई' कहा जाता है। इस लड़ाई में निजाम की हार हुई और उस पर मजबूरन शांति बनाए रखने के लिए दबाव डाला गया।
मालवा का संघर्ष
बाजीराव ने सन् 1723 में दक्षिण मालवा की ओर एक अभियान शुरू किया जिसमें मराठा के प्रमुख रानोजी शिंदे, मल्हारराव होलकर, उदाजीराव पवार, तुकोजीराव पवार और जीवाजीराव पवार ने सफलतापूर्वक चौथ वसूला। अक्टूबर 1728 में बाजीराव ने एक विशाल सेना अपने छोटे भाई चिमनाजी अप्पा के नेतृत्व में भेजा जिसके कुछ प्रमुख थे शिंदे, होलकर और पवार। 29 नवंबर 1728 को चिमनाजी की सेना ने मुगलों को अमझेरा में हरा दिया।
बुंदेलखंड
बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल ने मुगलों के खिलाफ विद्रोह छेड़ दिया था जिसके कारण दिसंबर 1728 में मुगलों ने मुहम्मद खान बंगश के नेतृत्व में बुंदेलखंड पर आक्रमण कर दिया और महाराजा के परिवार के लोगों को बंधक बना दिया। छत्रसाल राजा के बार-बार बाजीराव से मदद मांगने पर मार्च सन् 1729 को को बाजीराव ने उत्तर दिया और अपनी ताकत से महाराजा छत्रसाल को उनका सम्मान वापस दिलाया। महाराजा छत्रसाल ने बाजीराव को बहुत बड़ी जागीर सौंपी और अपनी बेटी मस्तानी और बाजीराव का विवाह भी करवाया, साथ ही महाराजा छत्रसाल ने अपनी मृत्यु सन् 1731 के पहले अपने कुछ मुख्य राज्य भी मराठों को सौंप दिए।
गुजरात
सन् 1730 में पेशवा बाजीराव ने अपने छोटे भाई चिमनाजी अप्पा को गुजरात भेजा। मुगल शासन के गवर्नर सर्बुलंद खान ने गुजरात का कर इकट्ठा (चौथ और सरदेशमुखी) को मराठों को सौंप दिया। 1 अप्रैल 1731 में बाजीराव ने दाभाड़े, गायकवाड़ और कदम बंदे की सेनाओं को हरा दिया और दभोई के युद्ध में त्रिम्बकराव की मृत्यु हो गई। 27 दिसंबर 1732 में निजाम की मुलाकात पेशवा बाजीराव से रोहे-रमेशराम में हुई, परंतु निजाम ने कसम खाई कि वो मराठों के अभियानों में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
सिद्दियों के खिलाफ
जंजीरा के सिद्दी मुस्लिम राजा एक छोटा राज्य पश्चिमी तटीय भाग और जंजीर के किले को संभालते थे, पर शिवाजी की मृत्यु के बाद से वो धीरे-धीरे मध्य और उत्तर कोंकण पर भी राज करने लगे। सन् 1733 में सिद्दी प्रमुख रसूल याकूत खान की मृत्यु के बाद उसके बेटों के बीच युद्ध-सा छिड़ गया। उनके एक पुत्र अब्दुल रहमान ने बाजीराव पेशवा से मदद मांगी जिसके कारण बाजीराव ने कान्होजी अंगरे के पुत्र सेखोजी अंगरे के नेतृत्व में एक सेना मदद के लिए भेज दी। मराठों ने कोंकण और जंजीरा की कई जगहों पर काबू पा लिया और 1733 में ही उन्होंने रायगढ़ के किले पर भी कब्जा कर लिया। 19 अप्रैल 1736 में चिमनाजी ने सिद्दियों पर आक्रमण कर दिया जिसके कारण लगभग 1,500 से ज्यादा सिद्दियों की मृत्यु हो गई।
मुगलों के गढ़ दिल्ली के खिलाफ
बाजीराव के पद पर आने के बाद मुगल सम्राट मुहम्मद शाह ने मराठों को शिवाजी की मृत्य के बाद प्रदेशों की अधीनता को याद दिलाया। सन् 1719 में मुगलों ने यह भी याद दिलाया कि डेक्कन के 6 प्रांतों से कर वसूलने का मराठों का अधिकार क्या है? उस वक्त निजाम-उल-मुल्क असफ जह प्रथम मुगल साम्राज्य का वाइसराय था। उसने दक्कन में नया राज्य निर्माण किया और मराठों को कर वसूली के अधिकार के लिए चुनौती दी। बहुत जल्द ही मराठों ने मालवा और गुजरात में भी प्रदेशों को प्राप्त किया।
19-20 साल के उस युवा बाजीराव ने 3 दिन तक दिल्ली को बंधक बनाकर रखा था। मुगल बादशाह की लाल किले से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हुई। यहां तक कि 12वां मुगल बादशाह और औरंगजेब का नाती दिल्ली से बाहर भागने ही वाला था कि बाजीराव मुगलों को अपनी ताकत दिखाकर वापस लौट गए। ये घटना भंसाली की फिल्म में नहीं है।
दिल्ली पर आक्रमण उनका सबसे बड़ा साहसिक कदम था। वे अक्सर शिवाजी के नाती छत्रपति शाहू से कहते थे कि मुगल साम्राज्य की जड़ों यानी दिल्ली पर आक्रमण किए बिना मराठों की ताकत को बुलंदी पर पहुंचाना मुमकिन नहीं और दिल्ली को तो मैं कभी भी कदमों पर झुका दूंगा। छत्रपति शाहू 7 से 25 साल की उम्र तक मुगलों की कैद में रहे थे। वे मुगलों की ताकत को बखूबी जानते थे, लेकिन बाजीराव का जोश उस पर भारी पड़ जाता था।
धीरे-धीरे उन्होंने महाराष्ट्र को ही नहीं, पूरे पश्चिम भारत को मुगल आधिपत्य से मुक्त कर दिया था, फिर उन्होंने दक्कन का रुख किया। दक्कन में निजाम, जो मुगल बादशाह से बगावत कर चुका था, एक बड़ी ताकत था। कम सेना होने के बावजूद बाजीराव ने उसे कई युद्धों में हराया और कई शर्तें थोपने के साथ उसे अपने प्रभाव में लिया था।
इधर, उन्होंने बुंदेलखंड में मुगल सिपहसालार मोहम्मद बंगश को हराया। कई बार पेशवा से मात खा चुके मुगलों का हौसला कमजोर हो चुका था। 1728 से 1735 के बीच पेशवा ने कई जंगें लड़ीं, पूरा मालवा और गुजरात उनके कब्जे में आ गया। बंगश, निजाम जैसे कई बड़े सिपहसालार पस्त हो चुके थे।
इधर दिल्ली का दरबार ताकतवर सैयद बंधुओं को ठिकाने लगा चुका था और निजाम पहले ही विद्रोही हो चुका था। औरंगजेब के वंशज और 12वें मुगल बादशाह मोहम्मद शाह को रंगीला कहा जाता था। जंग लड़ने की उसकी आदत में जंग लगा हुआ था। कई मुगल सिपहसालार विद्रोह कर रहे थे। उसने बंगश को हटाकर जयसिंह को भेजा जिसने बाजीराव से हारने के बाद उनको मालवा से चौथ वसूलने का अधिकार दिलवा दिया। मुगल बादशाह ने बाजीराव को डिप्टी गवर्नर भी बनवा दिया। लेकिन बाजीराव का बचपन का सपना मुगल बादशाह को अपनी ताकत का परिचय करवाने का था, वो एक प्रांत का डिप्टी गवर्नर बनके या बंगश और निजाम जैसे सिपहसालारों को हराने से कैसे पूरा होता?
दिल्ली पर आक्रमण :
उन्होंने 12 नवंबर 1736 को पुणे से दिल्ली मार्च शुरू किया। मुगल बादशाह ने आगरा के गवर्नर सादात खां को उनसे निपटने का जिम्मा सौंपा। मल्हारराव होलकर और पिलाजी जाधव की सेनाएं यमुना पार कर के दोआब में आ गईं। मराठों से खौफ में था सादात खां, उसने डेढ़ लाख की सेना जुटा ली। मराठों के पास तो कभी भी एक मोर्चे पर इतनी सेना नहीं रही थी। लेकिन उनकी रणनीति के चलते मल्हारराव होलकर ने रणनीति अनुसार मैदान छोड़ दिया। सादात खां ने इसे मराठों का डरना समझा और उसने डींगें मारते हुए अपनी जीत का सारा विवरण मुगल बादशाह को पहुंचा दिया और खुद सेना लेकर मथुरा की तरफ चला गया।
बस उसी वक्त बाजीराव ने सादात खां और मुगल दरबार को सबक सिखाने की सोची। उस वक्त देश में कोई भी ऐसी ताकत नहीं थी, जो सीधे दिल्ली पर आक्रमण करने का ख्वाब भी दिल में ला सके। मुगलों का और खासकर दिल्ली दरबार का खौफ सबके सिर चढ़कर बोलता था। लेकिन बाजीराव को पता था कि ये खौफ तभी हटेगा जब दिल्ली पर हमला होगा। सारी मुगल सेना आगरा-मथुरा में अटक गई और बाजीराव दिल्ली तक चढ़ आया, आज जहां तालकटोरा स्टेडियम है, वहां बाजीराव ने डेरा डाल दिया।
10 दिन की दूरी बाजीराव ने केवल 500 घोड़ों के साथ 48 घंटे में पूरी की- बिना रुके, बिना थके। देश के इतिहास में ये अब तक 2 आक्रमण ही सबसे तेज माने गए हैं- एक अकबर का फतेहपुर से गुजरात के विद्रोह को दबाने के लिए 9 दिन के अंदर वापस गुजरात जाकर हमला करना और दूसरा बाजीराव का दिल्ली पर हमला।
बाजीराव ने तालकटोरा में अपनी सेना का कैंप डाल दिया, केवल 500 घोड़े थे उसके पास। मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला बाजीराव को लाल किले के इतना करीब देखकर घबरा गया। उसने खुद को लाल किले के अंदर सुरक्षित इलाके में कैद कर लिया और मीर हसन कोका की अगुआई में 8 से 10 हजार सैनिकों की टोली बाजीराव से निपटने के लिए भेजी। बाजीराव के 500 लड़ाकों ने उस सेना को बुरी तरह शिकस्त दी। ये 28 मार्च 1737 का दिन था, मराठा ताकत के लिए सबसे बड़ा दिन।
कितना आसान था बाजीराव के लिए लाल किले में घुसकर दिल्ली पर कब्जा कर लेना। लेकिन बाजीराव की जान तो पुणे में बसती थी, महाराष्ट्र में बसती थी। वो 3 दिन तक वहीं रुका। एक बार तो मुगल बादशाह ने योजना बना ली थी कि लाल किले के गुप्त रास्ते से भागकर अवध चला जाए लेकिन बाजीराव बस मुगलों को अपनी ताकत का अहसास दिलाना चाहता था। वो 3 दिन तक वहीं डेरा डाले रहा, पूरी दिल्ली एक तरह से मराठों के रहमोकरम पर थी। उसके बाद बाजीराव वापस लौट गया।
अपनी इज्जत गंवा चुके मुगल बादशाह रंगीला ने निजाम से मदद मांगी। निजाम दक्कन से निकल पड़ा। इधर से बाजीराव और उधर से निजाम दोनों मध्यप्रदेश के सिरोंजी में मिले। लेकिन कई बार बाजीराव से पिट चुके निजाम ने उनको केवल इतना बताया कि वो मुगल बादशाह से मिलने जा रहा है, किसी युद्ध के लिए नहीं। निजाम को मराठाओं ने रास्ता दे दिया।
निजाम दिल्ली आया और उसने कई मुगल सिपहसालारों ने हाथ मिलाते हुए बाजीराव को धूल चटाने का संकल्प लेकर कूच कर दिया। लेकिन बाजीराव बल्लाल भट्ट दूरदर्शी योद्धा था। वह पहले से ही यह सब जानता था। वह अपने भाई चिमनाजी अप्पा के साथ 10,000 सैनिकों को दक्कन की सुरक्षा का भार देकर 80,000 सैनिकों के साथ फिर दिल्ली की तरफ निकल पड़ा। इस बार मुगलों को निर्णायक युद्ध में हराने का इरादा था ताकि वे फिर सिर न उठा सकें।
दिल्ली से निजाम की अगुआई में मुगलों की विशाल सेना और दक्कन से बाजीराव की अगुआई में मराठा सेना निकल पड़ी। दोनों सेनाएं भोपाल में मिलीं। 24 दिसंबर 1737 के दिन मराठा सेना ने मुगलों को जबरदस्त तरीके से हराया। निजाम ने अपनी जान बचाने के के लिए बाजीराव से संधि कर ली। इस बार 7 जनवरी 1738 को ये संधि दोराहा में हुई। मालवा, मराठों को सौंप दिया गया और मुगलों ने 50 लाख रुपए बतौर हर्जाना बाजीराव को सौंपे।
चूंकि निजाम हर बार संधि तोड़ता था, सो बाजीराव ने इस बार निजाम को मजबूर किया कि वो कुरान की कसम खाकर संधि की शर्तें दोहराए। ये मुगलों की अब तक की सबसे बड़ी हार थी और मराठों की सबसे बड़ी जीत।
पुर्तगालियों के खिलाफ
पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट यहीं नहीं रुका, अगला अभियान उसका पुर्तगालियों के खिलाफ था। कई युद्धों में उन्हें हराकर उनको अपनी सत्ता मानने पर उसने मजबूर किया। पुर्तगालियों ने कई पश्चिमी तटों पर कब्जा कर लिया था। साल्सेट द्वीप पर उन्होंने अवैध तरीके से एक फैक्टरी बना दी थी और वे हिन्दुओं में जातिवाद बढ़ाकर धर्मांतरण का कार्य कर रहे थे। वसई युद्ध के बाद मार्च 1737 में पेशवा बाजीराव ने अपनी एक सेना चिमनजी के नेतृत्व में भेजी और थाना किला और बेस्सिन पर कब्जा कर लिया।
बाजीराव की मृत्यु :
कहा जाता है कि बाजीराव पेशवा की मृत्यु 28 अप्रैल 1740 को 39 वर्ष की आयु में दिल का दौरा पड़ने से हुई थी। उस समय वे इंदौर के पास खरगोन शहर में रुके थे। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि बाजीराव का निधन मालवा में ही नर्मदा किनारे रावेरखेड़ी में लू लगने के कारण हुआ था।
अगर बाजीराव पेशवा कम उम्र में न चल बसता, तो न अहमद शाह अब्दाली या नादिर शाह हावी हो पाते और न ही अंग्रेज और पुर्तगालियों जैसी पश्चिमी ताकतें होतीं। बाजीराव का केवल 40 साल की उम्र में इस दुनिया से चले जाना मराठों के लिए ही नहीं, देश की बाकी पीढ़ियों के लिए भी दर्दनाक भविष्य लेकर आया। अगले 200 साल गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहा भारत और कोई भी ऐसा योद्धा नहीं हुआ, जो पूरे देश को एक सूत्र में बांध पाता।
वाराणसी में उनके नाम का एक घाट है, जो खुद बाजीराव ने 1735 में बनवाया था। दिल्ली के बिड़ला मंदिर में उनकी एक मूर्ति है। कच्छ में उनका बनाया आईना महल, पूना में मस्तानी महल और शनिवार बाड़ा है। पूना शहर को कस्बे से महानगर में तब्दील करने वाले बाजीराव बल्लाल भट्ट थे और सतारा से लाकर कई अमीर परिवार वहां बसाए गए थे।
मराठा मण्डल की स्थापना
बाजीराव प्रथम को अनेक मराठा सरदारों के विरोध का सामना करना पड़ा था। विशेषरूप से उन सरदारों का जो क्षत्रिय थे और ब्राह्मण पेशवा की शक्ति बढ़ने से ईर्ष्या करते थे। बाजीराव प्रथम ने पुश्तैनी मराठा सरदारों की शक्ति कम करने के लिए अपने समर्थकों में से नये सरदार नियुक्त किये थे और उन्हें मराठों द्वारा विजित नये क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया था। इस प्रकार मराठा मण्डल की स्थापना हुई, जिसमें ग्वालियर के शिन्दे, बड़ौदा के गायकवाड़, इन्दौर के होल्कर और नागपुर के भोंसला शासक शामिल थे। इन सबके अधिकार में काफ़ी विस्तृत क्षेत्र था। इन लोगों ने बाजीराव प्रथम का समर्थन कर मराठा शक्ति के प्रसार में बहुत सहयोग दिया था। लेकिन इनके द्वारा जिस सामन्तवादी व्यवस्था का बीजारोपण हुआ, उसके फलस्वरूप अन्त में मराठों की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गयी। यदि बाजीराव प्रथम कुछ समय और जीवित रहता, तो सम्भव था कि वह इसे रोकने के लिए कुछ उपाय करता। उसको बहुत अच्छी तरह मराठा साम्राज्य का द्वितीय संस्थापक माना जा सकता है।
मराठा शक्ति का विभाजन
बाजीराव प्रथम ने बहुत अंशों में मराठों की शक्ति और प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया था, परन्तु जिस राज्य पर उसने अपने स्वामी के नाम से शासन किया, उसमें ठोसपन का बहुत आभाव था। इसके अन्दर राजाराम के समय में जागीर प्रथा के पुन: चालू हो जाने से कुछ अर्ध-स्वतंत्र मराठा राज्य पैदा हो गए। इसका स्वाभाविक परिणाम हुआ, मराठा केन्द्रीय सरकार का दुर्बल होना तथा अन्त में इसका टूट पड़ना। ऐसे राज्यों में बरार बहुत पुराना और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। यह उस समय रघुजी भोंसले के अधीन था, जिसका राजा शाहू के साथ वैवाहिक सम्बन्ध था। उसका परिवार पेशवा के परिवार से पुराना था, क्योंकि यह राजाराम के शासनकाल में ही प्रसिद्ध हो चुका था। दाभाड़े परिवार ने मूलरूप से गुजरात पर अधिकार कर रखा था, परन्तु पुश्तैनी सेनापति के पतन के बाद उसके पहले के पुराने अधीन रहने वाले गायकवाड़ों ने बड़ौदा में अपना अधिकार स्थापित कर लिया। ग्वालियर के सिंधिया वंश के संस्थापक रणोजी सिंधिया ने बाजीराब प्रथम के अधीन गौरव के साथ सेवा की तथा मालवा के मराठा राज्य में मिलाये जाने के बाद इस प्रान्त का एक भाग उसके हिस्से में पड़ा। इन्दौर परिवार के मल्हारराव व होल्कर ने भी बाजीराव प्रथम के अधीन विशिष्ट रूप से सेवा की थी तथा मालवा का एक भाग प्राप्त किया था। मालवा में एक छोटी जागीर पवारों को मिली, जिन्होंने धार में अपनी राजधानी बनाई।
विलक्षण व्यक्तित्व
बाजीराव प्रथम ने मराठा शक्ति के प्रदर्शन हेतु 29 मार्च, 1737 को दिल्ली पर धावा बोल दिया था। मात्र तीन दिन के दिल्ली प्रवास के दौरान उसके भय से मुग़ल सम्राट मुहम्मदशाह दिल्ली को छोड़ने के लिए तैयार हो गया था। इस प्रकार उत्तर भारत में मराठा शक्ति की सर्वोच्चता सिद्ध करने के प्रयास में बाजीराव प्रथम सफल रहा था। उसने पुर्तग़ालियों से बसई और सालसिट प्रदेशों को छीनने में सफलता प्राप्त की थी। शिवाजी के बाद बाजीराव प्रथम ही दूसरा ऐसा मराठा सेनापति था, जिसने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाया। वह 'लड़ाकू पेशवा' के नाम से भी जाना जाता है। बाजीराव-प्रथम 'मस्तानी' नाम की मुस्लिम स्त्री से प्रेम सम्बन्धों के कारण भी चर्चित रहा था।