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गोलियों से छलनी होकर भी पुलिस मुख्यालय पर लहराते रहे तिरंगा

Date : 10-Aug-2023

कोलकाता। आजादी के पवित्र महीने में मां भारती की स्वतंत्रता के लिए सर्वोच्च बलिदान देने वाले क्रांतिकारियों की दास्तां हर जगह गूंज रही हैं। हालांकि इनमें से कई क्रांतिकारी ऐसे भी हैं, जिनके बारे में पूरी दुनिया नहीं जानती है। हिन्दुस्थान समाचार ने ऐसे गुमनाम क्रांतिकारियों की दास्तां अपने पाठकों के समक्ष ला रहा है, जो मां भारती की आजादी के लिए गुमनामी और घोर अंधेरा ओढ़ कर खुद को बलिदान कर गए लेकिन इतिहास में उन्हें उचित जगह नहीं मिली।

इस सिलसिले में आज हम बात करेंगे पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के लाल चुनाराम महतो की। इनकी बहादुरी का क्या आलम था, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अगस्त क्रांति के समय जब पूरे देश में अंग्रेजों के तख्तापलट के लिए योजनाबद्ध तरीके से पुलिस मुख्यालयों पर हमले हो रहे थे, तब इन्होंने भी पुरुलिया जिले के मानबाजार थाने पर हुए हमले का नेतृत्व किया था। उस वक्त उनकी उम्र महज 18 साल थी। यहां क्रांतिकारियों से मुठभेड़ में अंग्रेज सिपाहियों ने उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया, बदन से लहू का आखिरी कतरा बहता रहा लेकिन पुलिस मुख्यालय से अंग्रेजी ध्वज को उतारकर जब तक तिरंगा नहीं लहराया तब तक दम नहीं तोड़ा। उसके बाद यहीं मातृभूमि पर जीवन समर्पित कर गए।

चुनाराम महतो का जन्म 3 फरवरी, 1924 को पुरुलिया जिले के मानबाजार थाना अंतर्गत नाथुरडिह गांव में विश्वेश्वर महतो के यहां हुआ था। इनके पिता भी क्रांति का हिस्सा थे, इसलिए बचपन से ही मातृभूमि के प्रति समर्पण चुनाराम महतो के दिलो-दिमाग में था। किस तरह से आजादी की लड़ाई में चुनाराम की दीवानगी थी, यह इसी से समझा जा सकता है कि महज आठ साल की उम्र में उन्हें पहली बार गिरफ्तार कर अंग्रेजों ने जेल भेज दिया था। रिहा हुए तो दोबारा क्रांतिकारियों की योजना का हिस्सा बन गए। उन दिनों यह पूरा क्षेत्र बिहार प्रांत के अंतर्गत पड़ता था लेकिन आजादी के बाद 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश पर पुरुलिया को पश्चिम बंगाल का हिस्सा बना दिया गया था।

इतिहासकार नागेंद्र सिन्हा बताते हैं कि अगस्त 1942 में जब पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंका गया था तब उसमें चुनाराम महतो भी अपने बाकी क्रांतिकारी साथियों के संग कूद पड़े। उन्हीं के गांव के गोविंद महतो भी उनके छाया साथी थे। पूरे देश के साथ पुरुलिया भी अंग्रेजों के खिलाफ हिंसक आंदोलन का केंद्र बिंदु था और अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर विभिन्न राजनीतिक डकैतियों में दोनों शामिल रहे थे।

सितंबर 1942 में पूरे जिले के प्रमुख थानों पर कब्जा करने की योजना क्रांतिकारियों ने बनाई। मानबाजार थाने पर हमले की जिम्मेदारी चुनाराम महतो और गोविंद महतो के नेतृत्व में कांग्रेस के गरम दल के स्वयंसेवकों ने संभाली थी। 30 सितंबर, 1942 को तत्कालीन कांग्रेसी स्वयंसेवक और चर्चित क्रांतिकारी किंकर महतो के नेतृत्व में मानबाजार पुलिस थाने पर धावा बोला गया। अंग्रेजों को क्रांतिकारियों की गतिविधियों की भनक लग गई थी, इसलिए प्रमुख थानों को बचाने के लिए अतिरिक्त संख्या में सशस्त्र अंग्रेज सिपाहियों की तैनाती की गई थी। यहां मानबाजार थाने पर जब क्रांतिकारियों ने हमले शुरू किए तो पुलिस ने भी बेहिचक निहत्थे क्रांतिकारियों पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। गोलियां लगती रहीं और क्रांतिकारी लहूलुहान होकर गिरते और उठकर दोबारा हमले करते रहे।

पुलिस बर्बरता के बावजूद क्रांतिकारियों ने थाने पर कब्जा कर लिया। यहां मौजूद सरकारी दस्तावेजों व रिकॉर्ड को केरोसिन तेल डालकर जला दिया गया। अभिलेखागार को पूरी तरह से आग के हवाले कर दिया गया। क्रांतिकारियों की योजना को सफल बनाने के लिए इनके दूसरे साथियों ने पुरुलिया शहर के सभी प्रमुख पुलों और सड़कों को क्षतिग्रस्त कर दिया था ताकि अतिरिक्त सैनिकों का आवागमन ठप पड़ जाए और यही हुआ भी। इस दौरान अंग्रेजी फौज लगातार फायरिंग करती रही और चुनाराम महतो खून से लथपथ होकर भी योजना को सफल बनाते रहे। क्रांतिकारियों ने थाने पर कब्जा करने के बाद यहां लहरा रहे ब्रिटिश ध्वज को उतार फेंका और जला दिया। इसके बाद तिरंगा लहराया। स्वराज का प्रतीक जैसे ही तिरंगा थाने पर लहराना शुरू किया चुनाराम महतो ने वहीं मातृभूमि पर जीवन सुमन समर्पित कर दिया।

आजादी के बाद इस मानबाजार थाने से सात से आठ किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में बहने वाली कुमारी नदी पर सन 1990-92 के आसपास पुल बनाया गया, जिसका नामकरण आत्म बलिदानी गोविंद महतो और चुनाराम महतो के नाम पर "गोविंद चुनाराम सेतु" रखा गया। उन्हीं की याद में यहां के स्कूल का नामकरण भी गोविंद चुनाराम विद्यापीठ किया गया है।

 
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