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जो व्यक्ति दूसरों के काम न आए वास्तव में वह मनुष्य नहीं है - ईश्वर चंद्र विद्यासागर

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शिक्षाप्रद कहानी:- अर्जुन का अभिमान

Date : 01-Jun-2024

 

 

यह प्रसिद्ध है कि  कर्ण  अपने समय में विश्व में सर्वश्रेष्ठ दानी समझा जाता था | उधर अर्जुन को भी अपनी दानशीलता का बड़ा गर्व था | एक बार भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन के समक्ष कर्ण  की उदारता याचक मात्र को बिना दान दिए वापस न  करने की मुक्त कंठ से प्रशंसा की | अर्जुन उस प्रशंसा को सह नहीं सका और उसने कहा - " माधव! आप बार-बार कर्ण  की प्रशंसा कर हमारे हृदय को ठोस पहुंचा रहे हैं | मैं समझता हूँ कि  आपको मेरी दानशीलता का ज्ञान ही नहीं है | अन्यथा मेरे सामने ही आप इस तरह की बात बार-बार न करते |"

भगवान् चुप रहे |

आखिर एक दिन इनकी परीक्षा का दिन आ ही गया | एक दिन एक ब्राम्हण अर्जुन के द्वार पर पहुंचा और कहने लगा -"धनंजय ! सुना है आपके द्वार से कोई भी याचक लौट कर नहीं जाता | मैं आज बड़े ही धर्म संकट में पड़  गया हूँ | मेरी पत्नी का सहसा देहांत हो गया है | मरते समय उसने मुझसे प्रार्थना की कि उसका डाह संस्कार केवल चन्दन की लकड़ी की चिता पर ही करने की कृपा की जाये | मैं ठहरा निर्धन ब्राम्हण, क्या आप यह व्यवस्था कर सकते हैं ?"

अर्जुन बोले - "क्यों नहीं, यह व्यवस्था कर सकते हैं | अभी इसका प्रबंध करते हैं |"

अर्जुन ने भंडारी को बुलाकर आज्ञा दी कि वह 25 मन चन्दन का काष्ठ  तोलकर ब्राम्हण महोदय के घर पर पहुँचाने की व्यवस्था करें |

दुर्भाग्य से उस दिन न तो भंडार में चन्दन का काष्ठ  विद्यमान था और न बाजार में ही उपलब्ध था | अंत में विवश होकर भंडारी अर्जुन के पास आकर कहने लगा-" महाराज! आज तो चन्दन की लकड़ी का प्रबंध कर पाना सर्वथा असंभव है |"

यह सुनकर ब्राम्हण अर्जुन से कहने लगा "तो क्या मुझे किसी अन्य स्थान पर जाना होगा ?"

अर्जुन के कहा " महाराज अब तो लाचारी है |"

वह ब्राम्हण अर्जुन के घर से चलकर सीधे कर्ण  के द्वार पर पहुंचा | उसने कर्ण  से भी उसी प्रकार चन्दन की लकड़ी की याचना की | कर्ण  ने अपने भंडारी को आज्ञा दी | भंडारी ने भंडार घर में लकड़ी न देखकर बाजार में छानबीन की. वहां भी उसको चन्दन की लकड़ी नहीं मिली, तो निराश लौटकर उसने कर्ण  को स्थिति से अवगत करा दिया | ब्राम्हण सब देख सुन रहा था |

स्थिति समझकर ब्राम्हण बोलै- " महाराज! तो अब मैं चलूँ ?"

कर्ण बोलै- " महाराज ! आप तनिक रुकिये, मैं, आपकी व्यवस्था करता हूँ |"

उन्होंने भृत्यों को आदेश दिया कि जितना काष्ठ  इनको चाहिए. उतना काष्ठ हमारे भवन में लगे चन्दन के खम्भों को उखाड़ कर इनके लिए उपलब्ध कराया जाये | इस प्रकार ब्राम्हण की मांग कर्ण ने पूरी कर दी | ब्राम्हण ने पत्नी का दाह  संस्कार किया | शाम को श्रीकृष्ण तथा अर्जुन भ्रमण के लिए निकले | देखा तो एक ब्राम्हण श्मशान पर संकीर्तन कर रहा है | उससे इसका कारण पूछा तो उसने कहा - "बस, बार-बार धन्यवाद है उस कर्ण  को, जिसने आज मेरे संकट को  दूर करने के लिए अपने दान की मनोवृत्ति की रक्षा करते हुए अपने महल के चन्दन के खम्भों को गिरवाकर दोने जैसे महल को ढहा दिया | भगवान् उसका भला करें|

अब श्रीकृष्ण ने अर्जुन की ओर देखा और कहा - "भाई चन्दन के खम्भें तो तुम्हारे महल में भी थे, पर तुम्हें उनकी याद ही नहीं आयी |"

यह देख और सुनकर अर्जुन बड़ा लज्जित हुआ |

 

 
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