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जो व्यक्ति दूसरों के काम न आए वास्तव में वह मनुष्य नहीं है - ईश्वर चंद्र विद्यासागर

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शिक्षाप्रद कहानी:- इंद्रिय संयम

Date : 08-Jun-2024

 

मथुरा की सर्वश्रेष्ठ नर्तकी, सौंदर्य की मूर्ति वासवदत्ता की दृष्टि अपने वातायन से राजपथ पर पड़ी और वहीँ रुक गयी | पीत चीवर ओढ, भिक्षा पात्र लिए एक मुण्डित मस्तक युवा भिक्षु नगर में रहा था | नगर के प्रतिष्ठित धनीमानी लोग और राजपुरुषों तक जिनकी चटुकारी किया करते थे, जिसके राजभवन जैसे प्रासाद की देहली पर चक्कर काटते रहते थे, वह नर्तकी भिक्षु को देखते ही उन्मत्तप्राय हो गयी | इतना सौंदर्य ? ऐसा अद्भुत तेज ? इतना सौम्य मुख ? नर्तकी दो क्षण तो ठिठकी सी देखती रह गयी और फिर जितनी शीघ्रता उससे हो सकी, उतनी शीघ्रता से दौड़ती हुई सीढियाँ उतरकर अपने द्वार पर आई |

"भन्ते !" नर्तकी ने भिक्षुक को पुकारा |

"भद्रे !" भिक्षुक आकर मस्तक झुकाये उसके सम्मुख खड़ा हो गया और उसने अपना भिक्षा पत्र आगे बढ़ा दिया |

"आप ऊपर पधारे |" नर्तकी का मुख लज्जा से लाल हो चुका था | किन्तु वह अपनी बात कह गयी, "यह मेरा भवन, मेरी सब सम्पत्ति और स्वयं मैं अब आपकी हूँ, मुझे आप स्वीकार करें |"

"मैं फिर तुम्हारे पास आऊंगा" भिक्षुक ने मस्तक उठाकर बेझिझक नर्तकी को देखा और पता नहीं क्या सोच लिया उसने |

"कब ?" नर्तकी ने हर्षोत्फुल्ल होकर पूछा |

"समय आने पर |"

यह कहते हुए भिक्षु आगे बढ़ गए |  वह जब तक दिखाई दिए, नर्तकी आपने द्वार पर कड़ी रहकर उनको निहारती रही, जैसे वर्षों की तपस्या के बाद किसी प्राण प्रिय के दर्शन हुए हो ?

 

वर्षों बाद मथुरा नगर के द्वार से बाहर यमुना के मार्ग पर एक स्त्री भूमि पर पड़ी थी | उसने वस्त्र अत्यंत मैले और फटे हुए थे | उस स्त्री के सारे  शरीर में घाव हो रहे थे | पीव और रक्त से भरे उन घावों से दुर्गन्ध रही थी | उधर से निकलते समय लोग अपना मुख दूसरी ओर कर लेते थे | यह नारी थी वही नर्तकी वासवदत्ता | उसके दुराचार ने उसे इस भयंकर रोग से ग्रस्त कर लिया था | सम्पत्ति नष्ट हो गयी थी, अब वह निराश्रित-सी मार्ग पर पड़ी थी |

 

सहसा एक भिक्षु उधर से निकला और वह उस दुर्दशायुक्त नारी के पास खड़ा हो गया | उसने पुकारा- " वासवदत्ता ! मैं गया हूँ |"

 "कौन ?" उस नारी ने बड़े कष्ट से भिक्षुक की ओर देखने का यत्न किया|

"भिक्षु उपगुप्त !" भिक्षु बैठ गया वहीं उस मार्ग पर और उसने उस नारी के घाव धोने आरंभ कर दिए |

"तुम अब आये, अब मेरे पास क्या धरा है ? मेरा यौवन, सौंदर्य धन आदि सभी कुछ तो नष्ट हो गया है |" नर्तकी के नेत्रों से अश्रुधारा बाह चली |

"मेरे आने का समय तो अभी हुआ है |" भिक्षु ने उसे धर्म का शांतिदायी उपदेश देना आरम्भ किया |

ये भिक्षु श्रेष्ठ ही कालांतर में सम्राट अशोक के गुरु हुए |

 
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