जेल में अमानुषिक यातनाएँ
क्राँतिकारी वनलता दासगुप्त ऐसी ही एक बलिदानी हैं जिनका नाम जेल रिकार्ड में तो है पर जीवन के विवरण का उल्लेख कहीं नहीं। जेल लिखी आयु के अनुसार उनका जन्म वर्ष 1915 ऑका गया है । वे बंगाल के विक्रमपुर में जन्मी थीं। यह क्षेत्र अब बांग्लादेश में है । वनलता को बचपन से ही बहुत कुशाग्र और स्वाभिमानी थीं। वे पढ़ाई के साथ खेलकूद, व्यायाम करती थीं। गाँव वालों से अंग्रेजों की पुलिस का व्यवहार ने उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध बना दिया था । 1933 में वे पढ़ने केलिये ढाका आई, कॉलेज में प्रवेश लिया और हॉस्टल में रहने लगीं। यहां वे क्रांतिकारियों के संपर्क में आई और उनकी गतिविधियों में भाग लेने लगीं। उन्होने रिवॉल्वर चलाना सीखा । क्राँतिकारियों ने उन्हें हथियार और संदेश यहाँ से वहाँ पहुँचाने का काम सौंपा । वे हथियार लेकर पहले अपने हॉस्टल में रखतीं थीं फिर सुविधा अनुसार पहुँचा देतीं थीं। पुलिस को खबर लगी । उन्होंने एक रिवॉल्वर अपनी दोस्त ज्योतिकाना दत्त के कमरे में छिपा रखी थी। हॉस्टल में छापा पड़ा । वनलता के कमरे में क्राँतिकारी साहित्य और ज्योतिकाना के कमरे में रिवॉल्वर मिली । ज्योतिकाना पुलिस प्रताड़ना न सह सकी । उसने वनलता का नाम बता दिया। वनलता भी गिरफ्तार हुई । ज्योतिकाना को चार साल और वनलता के तीन साल की कैद की सजा सुनाई। दोनों की खड़गपुर की हिजली जेल में रखा गया । वनलता से साथी क्राँतिकारियों के नाम जानने के लिये क्रूरतम यातनाएँ दीं गई। लेकिन उन्होंने सब सहा । किसी क्रांतिकारी का नाम न बताया । जेल की यातनाओं से उनका स्वास्थ्य बुरी तरह बिगड़ गया । वे मरणासन्न हो गई। इस कारण उन्हे नजरबंदी के साथ रिहा कर दिया गया । पुलिस की इतनी दहशत थी कि ढंग से इलाज मिल न पाया । वे लगभग तीन माह मरणासन्न अवस्था में बिस्तर पर रहीं और 1 जुलाई 1936 को उनका बलिदान हो गया । तब उनकी आयु मात्र 21 वर्ष की थी ।
उनके बलिदान को शत-शत नमन्
लेखक:- रमेश शर्मा