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नया कानून... मगर वह जो अभी होना शेष है

Date : 03-Jul-2024

देश में तीन ऐतिहासिक कानूनी परिवर्तन किए गए हैं। भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम ऐसे ही परिवर्तन हैं। उम्मीद है ये औपनिवेशिक अवशेषों को भी खत्म कर देंगे। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी,1860) और इंडियन एविडेंस एक्ट, 1872 ब्रिटिश राज की कानूनी व्यवस्थाएं थीं, जिन्हें हम आज भी ढो रहे थे। ये 'उपनिवेश की गुलामी' की याद दिलाती थीं। अब उनके स्थान पर पूर्णत: भारतीय संहिताएं होंगी। आपराधिक प्रक्रिया संहिता भी 1898 की विधिक व्यवस्था थी, लेकिन अब 'भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता' ने उसका स्थान लिया है।

वस्तुत: ये कानून राज्य के साथ नागरिक के संबंधों और समझौतों को परिभाषित करते थे। कानून का राज स्थापित करने के मद्देनजर बलपूर्वक भी व्यवस्था कार्रवाई करती थी। अर्थात कानूनों का दुरुपयोग होता था। खासकर हमारे आपराधिक न्याय को लेकर कई सवाल और ढेरों आपत्तियां की जाती रही हैं। कानून और दृष्टि अप्रासंगिक हो चुके थे। जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या असीमित हो गई है। पीडि़त पक्ष को इंसाफ के लिए जिंदगी भर जूतियां घिसनी पड़ती हैं, तब भी इंसाफ की उम्मीद अधूरी है। अदालतों में करोड़ों मामलों की भरमार है। यह बोझ बढ़ता जा रहा है।

सब कुछ अनिश्चित और अपरिमित है, लिहाजा इन व्यवस्थाओं में सुधार की गुंजाइश लंबे अंतराल से महसूस की जा रही थी। इन तीनों नए कानूनों पर संसद की स्थायी समितियों में विमर्श किया गया होगा। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जुलाई, 2020 में विशेषज्ञों की एक समिति गठित की थी। उसने देश के नागरिकों के लिए एक विस्तृत प्रश्नावली तैयार की थी और उसे जारी भी किया गया। उस सूची में आपराधिक वैवाहिक बलात्कार, यौन अपराधों को लैंगिक तौर पर निरपेक्ष बनाना, इच्छा-मृत्यु और राजद्रोह सरीखे अपराधों पर नागरिकों के अभिमत लिए जाने थे।

अभिमत कितनी संख्या में आए, कितने राज्यों के किन-किन वर्गों के लोगों ने अपने अभिमत दिए, भारत सरकार ने उनका कोई खुलासा नहीं किया है। दरअसल संसद में ये विधेयक तब पारित किए गए, जब 146 सांसद निलंबित थे और सदनों में एकतरफा बहुमत था, लिहाजा ध्वनि-मत से विधेयक पारित किए गए। बाद में राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से वे कानून बन गए, लेकिन इस संदर्भ में अब भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। इन तीनों संहिताओं और अधिनियम पर देश का जनमत सामने आना भी शेष है, क्योंकि एक जुलाई से ही ये ऐतिहासिक परिवर्तन लागू किए गए हैं।

अब 'प्राथमिकी' का नामकरण तक बदल दिया गया है। सजा के वैकल्पिक स्वरूप के तौर पर सामुदायिक सेवा का प्रावधान भी किया गया है। छोटे अपराधों के लिए 'समरी ट्रायल' को अनिवार्य किया गया है। वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिए ट्रायल अब सुनिश्चित होगा। भीड़-हत्या और हिंसा, बाल विवाह बलात्कार ऐसे अपराध हैं, जिनका समयबद्ध और गतिमय ट्रायल अनिवार्य होगा। अधिकतर सलाह-मशविरा, विमर्श कोरोना महामारी के दौरान किए गए, लिहाजा संहिताओं में कुछ बड़े परिवर्तन नहीं जोड़ पाए होंगे।

कुछ राज्यों ने भी आपत्तियां की हैं और मांगें भी की हैं। मसलन-कानूनों के नाम अंग्रेजी में नहीं होने चाहिए। क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद करने में काफी वक्त लगता है। कर्नाटक सरकार ने आपत्ति की है कि प्राथमिकी दर्ज करने से पहले प्राथमिक जांच के लिए पुलिस अफसर को 14 दिन का वक्त क्यों दिया जाना चाहिए? धारा 377 को बिल्कुल हटा देने पर भी सवाल किए गए हैं। उत्तर प्रदेश कैबिनेट ने एक प्रस्ताव पारित किया है कि अंतरिम जमानत के प्रावधानों में कुछ अपवाद रखे जाएं और इस पर एक अध्यादेश लाया जाए।

बहरहाल कुछ राज्यों के आग्रह तार्किक हैं और महत्वपूर्ण भी हैं। इन कानूनों की अभी समीक्षा की जानी चाहिए। नई लोकसभा में जो स्थायी समितियां बनेंगी, उनके सांसद-सदस्यों को पुनरावलोकन के लिए ये संहिताएं दी जाएं। इनसे जुड़े जहां भी कन्फ्यूजन हैं उन्हें दूर किया जाना बहुत जरूरी है, क्योंकि अभी भी जिन्हें केंद्र सरकार का विरोध ही करना है, वह नए सिरे से इन कानूनों को आधार बनाकर विरोध करते दिखते हैं। देश की समाजिक एवं कानून व्यवस्था के नजरिए से यह ठीक स्थिति नहीं है। ऐसे में अभी इस दिशा में बहुत जनजागृति किए जाने की आवश्यकता भी महसूस होती है।


लेखक:- राकेश दुबे

 
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