घटना सन् 1945 की है। डाकोर-स्थित श्रीरणछोड़जी के देवालय में महाराष्ट्र-सन्त श्री नरहरी महाराज का हरिकीर्तन चल रहा था। कीर्तन समाप्त होने पर उन्होंने घोषणा की कि थोड़ी ही देर में उस्ताद रजाक हुसैन के संगीत का कार्यक्रम होगा। यह सुनते ही श्रोताओं में से कुछ पंडित उठ खड़े हुए और बोले, "मन्दिर में एक मुस्लिम का गायन ! हरे, हरे ! इस हिन्दू देवालय में तो आज तक किसी भी विधर्मी ने प्रवेश नहीं किया है और आपने एक मुस्लिम गवैये के संगीत के कार्यक्रम का आयोजन किया है !"
नरहरी महाराज उन पंडितों के समीप एक तबला लेकर पहुँचे और उन्होंने प्रश्न किया, "मेरे हाथों में क्या है ?"
"तबला," उनमें से एक ने जवाब दिया।
"क्या तुम बता सकते हो कि यह किन-किन वस्तुओं से बना है?" उन्होंने पुनः प्रश्न किया।
"जी हाँ, लकड़ी और चमड़े से।"
"और इसी चमड़े के जूते आप लोग पहनते हैं! किन्तु इस देवालय में प्रवेश करने के पूर्व आप उन्हें बाहर छोड़ आये हैं! है न? क्या इसका कारण बता सकते हैं ?"
"इसलिये कि वे चमड़े के बने हैं और चमड़ा अपवित्र होता है।"
"फिर इस चमड़े से निर्मित तबले को आपने कैसे अन्दर रखने दिया?" महाराज ने अगला प्रश्न किया।
यह प्रश्न सुन वे पंडित खामोश हो गये। तब सन्त बोले, "चमड़े की वस्तुओं का स्पर्श करने के पश्चात् हम हाथ-पैर जल से धोकर स्वच्छ करते हैं, किन्तु इस तबले का स्पर्श करने पर नहीं। इसका कारण यह है कि 'तबला' 'तब' अर्थात् शुद्ध करके ही 'ला' होता है। अर्थात् चमड़े को विधिपूर्वक शुद्ध करके ही तबले का निर्माण होता है। मैंने उस्ताद को निमंत्रण देने के पूर्व काफी विचार किया है और तभी उन्हें इस कार्यक्रम के लिए आग्रह किया है। आप लोग उन्हें एक मुस्लिम की दृष्टि से नहीं वरन् एक मानव की दृष्टि से देखें और उनके संगीत का रस ग्रहण करें।"
बात पंडितों तथा सभी श्रोताओं को जँच गयी और उन्होंने न केवल उस्ताद का संगीत भक्तिभाव से सुना, बल्कि उनका पुष्पहारों के साथ स्वागत भी किया।