राजनीति एक रहस्यमय तंत्र है, जो कभी सपनों को यथार्थ में बदल देती है तो कभी यथार्थ को चूर-चूर कर देती है। डॉ. राममनोहर लोहिया की कांग्रेसमुक्त भारत की सोच आज के दौर में अधूरी नहीं रही, बल्कि देश लगभग कांग्रेसमुक्त हो चुका है, लेकिन उनकी विचारधारा का व्यापक प्रभाव अब भी मौजूद है। 23 मार्च को जहाँ भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत का दिन है, वहीं डॉ. राममनोहर लोहिया की जयंती भी है। लोहिया ने 1967 में उत्तर प्रदेश में चरण सिंह चौधरी की सरकार के माध्यम से गैरकांग्रेस सरकार की ओर पहला कदम बढ़ाया, और इसे दस साल बाद जयप्रकाश नारायण ने परिणति तक पहुँचाया।
सन् 1980 तक, लोहिया छात्रों और युवाओं के आदर्श बने रहे। उनकी छवि—मोटी खादी का कुर्ता, बिना कंघी के बाल, और मोटा चश्मा—एक तरह से एक आंदोलन बन गई थी। दिल्ली विश्वविद्यालय, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, और हर छोटे शहर के कॉलेज में लोहिया की यही छवि फैल गई थी। धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों का देवता में चंदर समाजवादी थे, जो रीवा के समाजवादी आंदोलन से जुड़े थे, और यह मुझे गर्व का अहसास कराता था कि रीवा का नाम समाजवादियों से जुड़ा हुआ था।
गांधी के मुकाबले लोहिया के विचार साहित्यकारों को अधिक आकर्षित करते थे। गांधी और लोहिया में फर्क ऐसा था जैसे राम और कृष्ण में होता है—एक मर्यादाओं में बंधा हुआ, और दूसरा उन्हे तोड़ने के लिए हर वक्त तैयार। इलाहाबाद में 'परिमल' लोहियावादी था, और यहाँ लोहिया के विचारों का प्रभाव साफ नजर आता था। उनके विचारों से जुड़े लेखकों में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, ओंकार शरद जैसे बड़े नाम थे।
लोहिया स्वयं साहित्यकारों के समर्थक थे। हैदराबाद के सेठ बद्रीविशाल पित्ती, जो कल्पना पत्रिका निकालते थे, लोहिया के बड़े प्रशंसक थे। उनके कहने पर मकबूल फिदा हुसैन जैसे कलाकारों को पगार दी जाती थी। फिदा हुसैन की रामकथा पर पेंटिंग सीरीज भी लोहिया के प्रभाव में थी। शायर शम्शी मीनाई के साथ भी लोहिया का घनिष्ठ संबंध था। एक बार उन्होंने लोकसभा में नेहरू के खिलाफ पूरी नज्म सुना दी थी, जो आज भी याद की जाती है।
लोहिया पत्रकारों के लिए हमेशा खबरों में रहते थे। 1963 में फरूखाबाद लोकसभा उपचुनाव में जीतने के बाद उनके बारे में एक अखबार ने लिखा था—"नेहरू सावधान, काँच के मकान में सांड घुस चुका है।" वे नास्तिक नहीं थे, उनके प्रतीकों में राम, कृष्ण और शिव के उद्धरण थे। लोहिया का वैचारिक अतिवाद युवाओं में जोश भरता था, और उनकी बातें आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं।
लोहिया का रीवा से गहरा संबंध था, और यहां उन्हें 'डॉ. साहब' के नाम से ज्यादा सम्मान मिलता था। रीवा में उनका आना-जाना बढ़ा और यहाँ के समाजवादी आंदोलन को एक नई दिशा मिली। 1948 में उनके आह्वान पर समाजवादी आंदोलन ने देशभर में हलचल मचाई, और रीवा रियासत का आंदोलन पूरे देश के लिए एक उदाहरण बन गया।
लोहिया की विचारधारा में एक अजीब सामंजस्य था—वह गांधी के समर्थक थे, लेकिन भगत सिंह के विचारों को भी मानते थे। 23 मार्च, भगत सिंह के शहादत दिवस पर ही उनका जन्म हुआ था। वे उन दिनों लाहौर के किले में बंद थे, जहाँ भगत सिंह को फांसी देने से पहले रखा गया था। लोहिया ने गांधी की विचारधारा को स्वीकार किया, लेकिन उन्होंने जीवन को भगत सिंह की तरह जिया। 1942 के बाद, उनका और नेहरू का मतभेद बढ़ने लगा। नेहरू सत्ता के हस्तांतरण की कोशिश में थे, जबकि लोहिया संपूर्ण आज़ादी की ओर अग्रसर थे।
रीवा में समाजवाद की जड़ें गहरी थीं, और यह जगह लोहिया की राजनीति की प्रयोगशाला बन गई थी। उनकी छवि ऐसी थी कि यहां के गांवों के लोग गर्व से कहते थे कि लोहिया ने उनके घर में भोजन किया था। उनका विचार था कि अगर कोई नेता अपने कार्यों को सही तरीके से करता है, तो जनता का भला हो सकता है।
लोहिया का राजनीति में सिद्धांतों के प्रति गहरा विश्वास था। 1954 में केरल में गोलीकांड के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री से इस्तीफा देने की मांग उठाई थी, और यही उनका सिद्धांत था कि खराब शासन की आलोचना उसी पार्टी के अंदर से होनी चाहिए। उनका यह आदर्श राजनीति में स्वच्छता और ईमानदारी की आवश्यकता को उजागर करता था।
हालाँकि आज लोहिया के उत्तराधिकारी बिखरे हुए हैं, और कई अपनी राजनीति में खो गए हैं, फिर भी उनके विचार समय के साथ प्रबल होते जाएंगे और लोकतंत्र की बेईमानी के खिलाफ एक मशाल बनकर जलते रहेंगे।