बलिदान दिवस पर सादर समर्पित
महानायक सरदार भगत सिंह के विरुद्ध क्या षड्यंत्र है? किसने और क्यों किया और कर रहे हैं ? पहले आतंकवादी कहा गया अब महान् क्रांतिकारी माना जाने लगा? अचानक कैंसे इतना लगाव हो रहा है?अब तो आपिए भी इसी कतार में खड़े हैं? आईये बलिदान दिवस पर जानते हैं?
परंतु सर्वप्रथम महारथी श्रीयुत भगत सिंह की कालजयी रचनाएँ देख लें,
"कमाल-ए बुजदिली है अपनी ही आंखों में पस्त होना,
अग़र थोड़ी-सी जुर्रत हो तो क्या कुछ हो नहीं सकता,
उभरने ही नहीं देतीं बेमायगी दिल की,
वरना कौन-सा कतरा है जो दरिया हो नहीं सकता।"
"जिंदगी तो अपने दम पर ही जी जाती है..दूसरों के कंधों पर तो सिर्फ जनाजे उठाए जाते हैं।"
"इंकलाब जिंदाबाद"
ये भी देखें,
" उसे फिक्र है, हरदम नया तर्जे जफा क्या है,
हमें ये शौक देखें तो सितम की इंतिहा क्या है,
घर से क्यों खफा रहें, खर्च का क्यों गिला करें,
सारा जहां अदू(अत्याचारी, दुश्मन, बैरी) सही, आओ मुकाबिला करें,
कोई दम का मेहमाँ हूँ, ऐ अहले महफिल,
चिराग शहर है बुझाना चाहता हूँ,
मेरी हवा में रहेगी ख्याल की बिजली ,
यह मुश्ते खाक है, फानी रहे या न रहे। "
यहाँ यह एक षड्यंत्र का भंडाफोड़ कर रहा हूँ कि सरदार भगत सिंह को पाश्चात्य इतिहासकारों और परजीवी इतिहासकारों ने आतंकवादी बताया है तो इन्हीं के स्वरों को साधते हुए शातिर वामपंथी इतिहासकारों ने मार्क्सवादी साहित्य पढ़ने के कारण उन्हें वामपंथी चाशनी में लपेटने की कोशिश की है जबकि ऐंसा है ही नहीं , वामपंथियों को जब ये एहसास हुआ कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान नगण्य सा है ,तो भगतसिंह को अपनी विचारधारा में समेटने लगे, और इसको अंजाम तक वामपंथी इतिहासकार विपिन चंद्रा ने पहुँचाया।जब उन्होंने सरदार भगत सिंह को क्रांतिकारी आतंकवादी बताया, परंतु इससे विवाद बढ़ गया और उनके चार सह लेखकों ने पुस्तक में संशोधन कर क्रांतिकारी समाजवादी रखना स्वीकार किया।
भगत सिंह पर वास्तविक प्रभाव किसका पड़ा था, यह बात इससे अच्छी तरह समझी जा सकती है कि 20 वीं सदी के दूसरे दशक में जब भगत सिंह और सहदेव, “हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन”, (HSRA ) के लिए सदस्यों को भर्ती कर रहे थे तब उसकी पहली शर्त यह होती थी, कि हर नए सदस्यों ने निकोलई बुखारीन और एवगेनी परोबरजहसंस्की की “ऐबीसी ऑफ़ कम्युनिज्म”, डेनियल ब्रीन की “माय फाइट फॉर आयरिश फ्रीडम” और चित्रगुप्त(जो एक छद्म नाम था) की “लाइफ ऑफ़ बैरिस्टर सावरकर” पढ़ी हुयी हो।
यहां यह ध्यान रखने वाला तथ्य है कि ऊपर उल्लेखित तीनों पुस्तकों में किसी के भी लेखक ,लेनिन और कार्ल मार्क्स नहीं है। साम्राजयवाद के विरुद्ध क्रांति की प्रेरणा जितनी उन्हें वामपंथियों के तौर तरीकों से मिली थी, उतनी ही उन्हें आयरलैंड के क्रांतिकारियों से मिली थी।
यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है की एच. एस. आर. ए. (HSRA) , रामप्रसाद बिस्मिल और चन्द्रशेखर आज़ाद की एच. आर. ए. (HRA) का नया स्वरुप था ,जिसका नामकरण, आयरिश रिपब्लिकन आर्मी से प्रेरित हो कर ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी’ रखा गया था।इससे पूरी तरह स्पष्ट है की भगत सिंह और उनके साथियों का वामपंथी विचारधारा से कोई लेना देना नहीं था। ऊपर की किताबों में सबसे महत्वपूर्ण किताब चित्रगुप्त की “लाइफ ऑफ़ बैरिस्टर सावरकर” थी।
यह पुस्तक ‘विनायक दामोदर सावरकर’ की जीवनी थी जो उन्होंने छद्म नाम चित्रगुप्त के नाम से लिखी थी। इस पुस्तक को पढ़ना और समझना हर एच.एस.आर.ए.के क्रांतिकारी सदस्य के लिए अनिवार्य था। केवल यही ही नहीं , वरन् इस प्रतिबंधित पुस्तक को छपवाया और उसका वितरण भी करवाया जाता था। जब लाहौर अनुष्ठान के बाद क्रांतिकारियों की गिरफ्तारियां हुईं थी तब यही एक ऐसी किताब थी जो सारे क्रांतिकारियों के पास से जब्त की गयी थी।
अब आप लोग यह समझ सकते हैं कि क्यों कांग्रेस ने, वामपंथियों के झूठ को प्रचारित होने दिया है। कांग्रेस, हमेशा से सावरकर और भगत सिंह के बीच के सत्य को जहां दबा कर रखना चाहती थी वहीं ‘सावरकर’ के विशाल व्यक्तित्व और उनकी आज़ादी की लड़ाई में योगदान को,दुष्प्रचार के माध्यम से कलंकित करके, राष्ट्रवादी विचारधारा को दबाये रखना चाहती थी।
भगत सिंह और उस काल के सभी क्रन्तिकारी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सावरकर जी से न केवल प्रभावित थे बल्कि ये नवजवान एक सच्चे राष्ट्रवादी थे। उनकी भारत के भविष्य को लेकर दृष्टि बिलकुल स्पष्ट थी। वो भारत को, अंग्रेजो की गुलामी से ही केवल स्वतंत्र नहीं कराना चाहते थे, वरन वो भारतवासियों के राजनैतिक के साथ,सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता का भी सपना देखते थे।
वामपंथी और कांग्रेस दोनों ने ही भारत के इतिहास का न केवल मान-मर्दन किया है बल्कि सरदार भगत सिंह ,चंद्रशेखर आजाद , सुखदेव और राजगुरु जैसे बलिदानियों का केवल अपमान किया है। विदेशी आक्रांताओं का गुणगान किया है और भारत के राष्ट्रीय नायक- नायिकाओं तथा चरित्रों की छवि धूमिल की है। अत: स्वाधीनता के अमृत काल में इनका शमन आवश्यक है।
लेखक - डॉ. आनंद सिंह राणा