सिख धर्म के आठवें गुरु, गुरु हरिकिशन साहिब जी, अपने अल्पायु जीवन में ही मानवता, सेवा और करुणा के ऐसे उच्च आदर्श स्थापित कर गए जो युगों-युगों तक स्मरणीय रहेंगे। वे मात्र 5 वर्ष की आयु में गुरु गद्दी पर आसीन हुए थे, और अपने छोटे से जीवन में उन्होंने जो सेवा, समर्पण और संवेदना का परिचय दिया, वह आज भी हमें प्रेरित करता है।
बचपन में ही बना दिए गए गुरु
गुरु हरिकिशन साहिब जी, सातवें गुरु श्री गुरु हरराय साहिब जी के छोटे पुत्र थे। जब उनके पिताजी ने उन्हें गुरु की गद्दी सौंपने का निर्णय लिया, तो कई लोगों को संदेह था कि एक बालक कैसे इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी संभाल पाएगा। लेकिन गुरु हरिकिशन साहिब ने अपने ज्ञान, विवेक और सेवा भाव से यह साबित कर दिया कि आयु नहीं, आत्मा का बल ही सच्चे नेतृत्व की कसौटी होती है।
दिल्ली में सेवा और बलिदान
गुरु हरिकिशन साहिब का जीवन सबसे अधिक याद किया जाता है 1664 में दिल्ली में फैली महामारी के समय। जब चेचक जैसी भयानक बीमारी फैली हुई थी, और लोग एक-दूसरे से दूर भाग रहे थे, तब गुरु हरिकिशन साहिब ने बिना भय के रोगियों की सेवा की। उन्होंने बीमारों को पानी पिलाया, उनके दुख बांटे और उन्हें सांत्वना दी।
उनकी करुणा और सेवा से प्रभावित होकर हजारों लोगों ने सिख धर्म के सिद्धांतों को अपनाया। दुर्भाग्यवश, इसी सेवा के दौरान वे स्वयं भी संक्रमित हो गए और 30 मार्च 1664 को महज 7 वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया।
जीवन से मिली सीख
गुरु हरिकिशन साहिब का जीवन हमें यह सिखाता है कि सेवा, समर्पण और करुणा किसी उम्र के मोहताज नहीं होते। उन्होंने यह सिखाया कि धर्म का सच्चा स्वरूप मानवता की सेवा में है। गुरु जी ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि ईश्वर की भक्ति केवल पूजा-पाठ में नहीं, बल्कि ज़रूरतमंद की मदद करने में है।
गुरु हरिकिशन साहिब जी की जयंती हम सभी के लिए न केवल श्रद्धांजलि का अवसर है, बल्कि यह आत्ममंथन का भी समय है कि क्या हम उनके द्वारा दिखाए गए रास्ते पर चल रहे हैं। उनका जीवन आज के समाज के लिए एक प्रेरणा है – सेवा करो, डर को त्यागो, और सभी प्राणियों में परमात्मा को देखो।