भारत के प्रथम क्रान्तिकारी -वासुदेव बलवंत फड़के | The Voice TV

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बड़ा बनना है तो दूसरों को उठाना सीखो, गिराना नहीं - अज्ञात

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भारत के प्रथम क्रान्तिकारी -वासुदेव बलवंत फड़के

Date : 17-Feb-2023

 ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह का संगठन करने वाले भारत के प्रथम क्रान्तिकारी थे। वासुदेव बलवन्त फड़के का जन्म महाराष्ट्र के रायगड ज़िले के 'शिरढोणे': नामक गांव में हुआ था। फड़के ने 1857 . की प्रथम संगठित महाक्रांति की विफलता के बाद आज़ादी के महासमर की पहली चिंनगारी जलायी थी। देश के लिए अपनी सेवाएँ देते हुए 1879 . में फड़के अंग्रेज़ों द्वारा पकड़ लिये गए और आजन्म कारावास की सज़ा देकर इन्हें अदन भेज दिया गया। यहाँ पर फड़के को कड़ी शारीरिक यातनाएँ दी गईं। इसी के फलस्वरूप 1883 . को इनकी मृत्यु हो गई।

परिचय

वासुदेव बलवन्त फड़के बड़े तेजस्वी और स्वस्थ शरीर के बालक थे। उन्हें वनों और पर्वतों में घूमने का बड़ा शौक़ था। कल्याण और पूना में उनकी शिक्षा हुई। फड़के के पिता चाहते थे कि वह एक व्यापारी की दुकान पर दस रुपए मासिक वेतन की नौकरी कर लें और पढ़ाई छोड़ दें। लेकिन फड़के ने यह बात नहीं मानी और मुम्बई गए। वहाँ पर जी.आर.पी. में बीस रुपए मासिक की नौकरी करते हुए अपनी पढ़ाई जारी रखी।

वासुदेव बलवंत फड़के की शिक्षा

कल्याण के स्कूल की पढ़ाई समाप्त कर वह बंबई पढ़ने गए, पर शीघ्र ही पूना में वासुदेव ने इंग्लिश हाई स्कूल में अपना नाम लिखाया। इससे दो साल पहले 1857 में बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी।1857 में ही विफल क्रांति हुई थी जिसके समाचारों को उसने बड़े ध्यान से सुना था। सामरिक चालों और व्यूह-रचना की बातों में वह बड़ा रस लेता था। लड़ाई में मिली जय-पराजय के कारणों की मीमांसा भी वह ध्यान से सुनता था। इस सबके कारण उसके जीवन का ध्येय भारत में पुनः क्रांति करना हो गया था। इस कारण उसने प्रवेशिका (एंट्रैस) परीक्षा देना अनावश्यक समझा। वासुदेव की आयु इस समय 15 वर्ष की थी।

व्यक्तिगत जीवन

वासुदेव फड़के ने 28 साल की उम्र में अपनी पहली शादी की थी, लेकिन पहली पत्नी की मृत्यु के बाद फिर उन्होंने दूसरा विवाह किया था।

व्यावसायिक जीवन

विद्यार्थी जीवन में ही वासुदेव बलवन्त फड़के 1857 . की विफल क्रान्ति के समाचारों से परिचित हो चुके थे। शिक्षा पूरी करके फड़के ने 'ग्रेट इंडियन पेनिंसुला रेलवे' और 'मिलिट्री फ़ाइनेंस डिपार्टमेंट', पूना में नौकरी की। उन्होंने जंगल में एक व्यायामशाला बनाई, जहाँ ज्योतिबा फुले भी उनके साथी थे। यहाँ लोगों को शस्त्र चलाने का भी अभ्यास कराया जाता था। लोकमान्य तिलक ने भी वहाँ शस्त्र चलाना सीखा था।

गोविन्द रानाडे का प्रभाव

1857 की क्रान्ति के दमन के बाद देश में धीरे-धीरे नई जागृति आई और विभिन्न क्षेत्रों में संगठन बनने लगे। इन्हीं में एक संस्था पूना की 'सार्वजनिक सभा' थी। इस सभा के तत्वावधान में हुई एक मीटिंग में 1870 . में महादेव गोविन्द रानाडे ने एक भाषण दिया। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि अंग्रेज़ किस प्रकार भारत की आर्थिक लूट कर रहे हैं। इसका फड़के पर बड़ा प्रभाव पड़ा। वे नौकरी करते हुए भी छुट्टी के दिनों में गांव-गांव घूमकर लोगों में इस लूट के विरोध में प्रचार करते रहे।

माता की मृत्यु

1871 . में एक दिन सायंकाल वासुदेव बलवन्त फड़के कुछ गंभीर विचार में बैठे थे। तभी उनकी माताजी की तीव्र अस्वस्थता का तार उनको मिला। इसमें लिखा था कि 'वासु' (वासुदेव बलवन्त फड़के) तुम शीघ्र ही घर जाओ, नहीं तो माँ के दर्शन भी शायद हो सकेंगे। इस वेदनापूर्ण तार को पढ़कर अतीत की स्मृतियाँ फ़ड़के के मानस पटल पर गयीं और तार लेकर वे अंग्रेज़ अधिकारी के पास अवकाश का प्रार्थना-पत्र देने के लिए गए। किन्तु अंग्रेज़ तो भारतीयों को अपमानित करने के लिए सतत प्रयासरत रहते थे। उस अंग्रेज़ अधिकारी ने अवकाश नहीं दिया, लेकिन वासुदेव बलवन्त फड़के दूसरे दिन अपने गांव चले आए। गांव आने पर वासुदेव पर वज्राघात हुआ। जब उन्होंने देखा कि उनका मुंह देखे बिना ही तड़पते हुए उनकी ममतामयी माँ चल बसी हैं। उन्होंने पांव छूकर रोते हुए माता से क्षमा मांगी, किन्तु अंग्रेज़ी शासन के दुव्यर्वहार से उनका हृदय द्रवित हो उठा।

 

अंग्रेजों के खिलाफ फड़के ने दी विद्रोह की घोषणा

इस घटना के वासुदेव फ़ड़के ने नौकरी छोड़ दी और विदेशियों के विरुद्ध क्रान्ति की तैयारी करने लगे। उन्हें देशी नरेशों से कोई सहायता नहीं मिली तो फड़के ने शिवाजी का मार्ग अपनाकर आदिवासियों की सेना संगठित करने की कोशिश प्रारम्भ कर दी। उन्होंने फ़रवरी 1879 में अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह की घोषणा कर दी। धन-संग्रह के लिए धनिकों के यहाँ डाके भी डाले। उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में घूम-घूमकर नवयुवकों से विचार-विमर्श किया, और उन्हें संगठित करने का प्रयास किया। किन्तु उन्हें नवयुवकों के व्यवहार से आशा की कोई किरण नहीं दिखायी पड़ी। कुछ दिनों बाद 'गोविन्द राव दावरे' तथा कुछ अन्य युवक उनके साथ खड़े हो गए। फिर भी कोई शक्तिशाली संगठन खड़ा होता नहीं दिखायी दिया। तब उन्होंने वनवासी जातियों की ओर नजर उठायी और सोचा आखिर भगवान श्रीराम ने भी तो वानरों और वनवासी समूहों को संगठित करके लंका पर विजय पायी थी। महाराणा प्रताप ने भी इन्हीं वनवासियों को ही संगठित करके अकबर को नाकों चने चबवा दिए थे। शिवाजी ने भी इन्हीं वनवासियों को स्वाभिमान की प्रेरणा देकर औरंगज़ेब को हिला दिया था।

 

ईनाम की घोषणा

 

महाराष्ट्र के सात ज़िलों में वासुदेव फड़के की सेना का ज़बर्दस्त प्रभाव फैल चुका था। अंग्रेज़ अफ़सर डर गए थे। इस कारण एक दिन मंत्रणा करने के लिए विश्राम बाग़ में इकट्ठा थे। वहाँ पर एक सरकारी भवन में बैठक चल रही थी। 13 मई, 1879 को रात 12 बजे वासुदेव बलवन्त फड़के अपने साथियों सहित वहाँ गए। अंग्रेज़ अफ़सरों को मारा तथा भवन को आग लगा दी। उसके बाद अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें ज़िन्दा या मुर्दा पकड़ने पर पचास हज़ार रुपए का इनाम घोषित किया। किन्तु दूसरे ही दिन मुम्बई नगर में वासुदेव के हस्ताक्षर से इश्तहार लगा दिए गए कि जो अंग्रेज़ अफ़सर 'रिचर्ड' का सिर काटकर लाएगा, उसे 75 हज़ार रुपए का इनाम दिया जाएगा। अंग्रेज़ अफ़सर इससे और भी बौखला गए।

गिरफ़्तारी

1857 . में अंग्रेज़ों की सहायता करके जागीर पाने वाले बड़ौदा के गायकवाड़ के दीवान के पुत्र के घर पर हो रहे विवाह के उत्सव पर फड़के के साथी दौलतराम नाइक ने पचास हज़ार रुपयों का सामान लूट लिया। इस पर अंग्रेज़ सरकार फड़के के पीछे पड़ गई। वे बीमारी की हालत में एक मन्दिर में विश्राम कर रहे थे, तभी 20 जुलाई, 1879 को गिरफ़्तार कर लिये गए। राजद्रोह का मुकदमा चला और आजन्म कालापानी की सज़ा देकर फड़के को 'अदन' भेज दिया गया।

निधन

 

महाराष्ट्र में जन्में देश के प्रथम क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के अपने पूरे जीवन भर देश की सेवा में लगे रहे। उन्हें स्वाधीनता की लड़ाई के दौरान काफी कष्ट और अमानवीय यातनाए सहनी पड़ी थी।

 

आपको बता दें कि साल 1879 . में वासुदेव बलवंत फड़के जी को क्रूर ब्रिटिश पुलिस अधिकारियों द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया और अजीवन कारावास यानि की आजीवन कालापानी की सजा सुनाई दी गई।

इस दौरान जेल में उन्होंने तमाम शारीरिक यातानाएं दी गईं, जिसके चलते जेल के अंदर ही उन्होंने 17 फरवरी, साल 1883 में अपनी आंखिरी सांस ली। इस तरह मरते दम तक वे राष्ट्र की सेवा में लगे रहे और तमाम कष्ट और यातनाएं सहने के बाबजूद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी बल्कि एक सच्चे देशभक्त और क्रांतिकारी के तरह लड़ते रहे।

वासुदेव बलवंत फड़के जैसे क्रांतिकारियों का भारतभूमि में जन्म लेना हम सब के लिए फक्र की बात है। हर किसी को उनकी देशभक्ति से प्रेरणा लेने की जरूरत है।

 

 
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