महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद, जिनका जन्म 23 जुलाई, 1906 को मध्य प्रदेश के झाबुआ ज़िले के भावरा गांव में हुआ था, एक ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे, जिन्होंने अपने जीवन से ब्रिटिश राज की नींव हिला दी। उनके पूर्वज उत्तर प्रदेश के बदरका गांव के थे, लेकिन परिस्थितियोंवश उनके पिता सीताराम तिवारी और माता जगरानी देवी 1905 के आस-पास झाबुआ आकर बस गए। परिवार में 1857 की क्रांति के दमन की कहानियाँ अक्सर सुनाई जाती थीं, जिसने बालक चंद्रशेखर के मन में अंग्रेजों के प्रति गहरी नफरत पैदा कर दी।
भावरा गाँव वनवासी बहुल क्षेत्र था, जिसका चंद्रशेखर के बचपन पर गहरा असर पड़ा। उन्होंने वनवासी बच्चों के साथ धनुष-बाण चलाना, निशाना लगाना और कुश्ती लड़ना सीखा। इस प्राकृतिक और सामाजिक वातावरण ने उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनाया।
'आज़ाद' नाम की उत्पत्ति
1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद देश भर में विरोध प्रदर्शनों का दौर चला। किशोर चंद्रशेखर ने इनमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। 1920 में, जब वे मात्र चौदह वर्ष के थे, उन्होंने स्कूल का बहिष्कार कर बच्चों के साथ मिलकर एक प्रभात फेरी निकाली। प्रशासन द्वारा प्रतिबंध के बावजूद, उन्होंने निडर होकर "रामधुन" और "आज़ादी के नारे" लगाए।
इसके लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। जब उनसे उनका नाम पूछा गया, तो उन्होंने कहा, "आज़ाद"। पिता का नाम "स्वतंत्र" और घर का पता "जेल" बताया। इस पर मजिस्ट्रेट ने उन्हें 15 बेंत मारने की सज़ा सुनाई। हर बेंत पर उनके शरीर से खून बहता रहा, लेकिन वे "भारत माता की जय" बोलते रहे। इस घटना के बाद, वे चंद्रशेखर आज़ाद के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
क्रांतिकारी जीवन और गतिविधियाँ
बनारस में अपनी शिक्षा पूरी करने के दौरान, आज़ाद का परिचय मन्मथ नाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी जैसे क्रांतिकारियों से हुआ, और वे सीधे क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए। उन्होंने अंग्रेजों के प्रति वफादार ज़मींदारों और व्यापारियों को निशाना बनाकर धन जुटाना शुरू किया।
अपनी पहचान छिपाने के लिए, उन्होंने 'हरिशंकर ब्रह्मचारी' का नाम अपनाया और झाँसी के पास ओरछा में एक आश्रम बनाया। वे बनारस, लखनऊ, कानपुर और झाँसी के बीच के इलाकों में सक्रिय रहे।
आज़ाद ने कई महत्वपूर्ण घटनाओं में भाग लिया, जिनमें शामिल हैं:
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1927 का काकोरी कांड
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1928 का सांडर्स वध
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1929 का दिल्ली विधान सभा बम कांड
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1929 का दिल्ली वायसराय बम कांड
यह आज़ाद का ही प्रयास था कि 1928 में भारत के सभी क्रांतिकारी संगठन एक होकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) का गठन कर सकें।
बलिदान
फरवरी 1931 में, पुलिस ने आज़ाद को घेरने की योजना बनाई। 27 फरवरी, 1931 को वे इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क (अब चंद्रशेखर आज़ाद पार्क) में थे, जब पुलिस ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया। एक लंबी मुठभेड़ के बाद, जब उनकी पिस्तौल में केवल एक गोली बची, तो उन्होंने अंग्रेजों के हाथों पकड़े जाने के बजाय खुद को गोली मार ली। वे आज़ाद ही जिए और आज़ाद ही विदा हुए।
उनके बलिदान के बाद, अंग्रेजों ने दहशत फैलाने के लिए उनके शव को पेड़ से लटका दिया। जब इसकी खबर कमला नेहरू को मिली, तो उन्होंने पुरुषोत्तमदास टंडन के साथ मिलकर अधिकारियों से बात की, शव को उतरवाया और सम्मानपूर्वक उनका अंतिम संस्कार करवाया।
चंद्रशेखर आज़ाद का जीवन और बलिदान आज भी हम सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनकी दृढ़ता, साहस और देश प्रेम की भावना हमें हमेशा याद दिलाती रहेगी कि आज़ादी कितनी अनमोल है।