सन्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्तिरेव च।
न च तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम् ॥
आचार्य चाणक्य यहां सन्तोष के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि सन्तोष के अमृत से तृप्त व्यक्तियों को जो सुख और शान्ति मिलती है, वह सुख-शान्ति धन के पीछे इधर-उधर भागनेवालों को नहीं मिलती।
भाव यह है कि सन्तोष सबसे बड़ा सुख है। जो व्यक्ति सन्तोषी होता है उसे परम सुख और शान्ति प्राप्त होती है, धन की चाह में इधर-उधर दौड़-भाग करनेवालों को ऐसी सुख-शान्ति कभी नहीं मिलती।
वस्तुतः चाणक्य का मत है कि मनुष्य की तृष्णाओं का कोई अन्त नहीं। व्यक्ति की कामनाएं व इच्छाएं निरन्तर बढ़ती रहती हैं। इस तरह इच्छाओं के बढ़ने से व्यक्ति के जीवन में एक प्रकार का भटकाव बना रहता है। जो व्यक्ति, जितना प्राप्त हो जाए उसमें सन्तोष कर लेता है, उसे ही सुख की प्राप्ति होती है क्योंकि सन्तोष का बड़ा महत्त्व होता है।
सन्तोषस्त्रिषु कर्तव्यः स्वदारे भोजने धने।
त्रिषु चैव न कर्तव्योऽध्ययने जपदानयोः ॥
यहां आचार्य चाणक्य सन्तोष के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि व्यक्ति को अपनी ही स्त्री से सन्तोष करना चाहिए चाहे वह रूपवती हो अथवा साधारण, वह सुशिक्षित हो अथवा निरक्षर-उसकी पत्नी है यही बड़ी बात है। इसी प्रकार व्यक्ति को जो भोजन प्राप्त हो जाय उसी से सन्तोष करना चाहिए, अपनी रूखी भी भली होती है। आजीविका से प्राप्त धन के सम्बन्ध में भी चाणक्य के विचार हैं कि व्यक्ति को असन्तोष में खेद या दुःख नहीं करना चाहिए। इससे उसकी मानसिक शान्ति नष्ट नहीं होती। यदि ऐसा नहीं करता तो वह अपने-आपको निरन्तर दुःखी पाता है। इसके विपरीत चाणक्य का यह भी कहना है कि शास्त्रों के अध्ययन, प्रभु के नाम का स्मरण और दान-कार्य में कभी सन्तोष नहीं करना चाहिए। ये तीनों बातें अधिक-से-अधिक करने की इच्छा करनी चाहिए। इनसे मानसिक शांति व आत्मिक सुख मिलता है।
वस्तुतः प्रायः ऐसा समझा जाता है कि जो कुछ व्यक्ति अपने भाग्य में लिखाकर आया है, उसे प्रयत्न करने पर भी नहीं बदला जा सकता। इसलिए यदि वह इन बातों के सम्बन्ध में सन्तोषपूर्वक जीवन बिताएगा तो उसे हानि नहीं होगी। क्योंकि मनुष्य का जीवन पानी के बुलबुले के समान है। जो आज है, हो सकता है वह कल न रहे। अतः चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य को चाहिए कि वह सदैव शुभ कार्यों में ही लगा रहे।