सत्य की खोज में जीवन अर्पित करने वाले और समाज को धर्म की दिशा देने वाले पूज्य स्वामी करपात्री जी महाराज, हम सभी के लिए श्रद्धा और प्रेरणा का स्रोत हैं। उनके नेतृत्व में 1966 में हुआ गौरक्षा आंदोलन भारतीय इतिहास का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं व्यापक जनांदोलन माना जाता है। ‘धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो’—उनका यह घोषवाक्य आज भी लाखों हिंदुओं को प्रेरणा देता है।
करपात्री जी का जन्म 1907 में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जनपद के लालगंज तहसील के भटनी गांव में हुआ था। उनके पिता श्री रामनिधि ओझा धार्मिक आस्थाओं से युक्त एक विद्वान वेदज्ञ पंडित थे और माता शिवरानी देवी एक धार्मिक, संस्कारी एवं आदर्श गृहिणी थीं। जन्म के समय उनका नाम हरि नारायण ओझा रखा गया था। मात्र 8-9 वर्ष की आयु से ही वे सत्य की खोज में घर से बाहर निकलने लगे। 9 वर्ष की आयु में उनका विवाह सौभाग्यवती महादेवी जी से हुआ, लेकिन केवल 16 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने गृहत्याग कर संन्यास का मार्ग अपना लिया। उसी वर्ष उन्होंने स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज से नैष्ठिक ब्रह्मचारी की दीक्षा लेकर 'हरिहर चैतन्य' नाम प्राप्त किया। 24 वर्ष की आयु में दंड ग्रहण कर उन्होंने अपना आश्रम स्थापित किया और 'परमहंस परिब्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी हरिहरानंद सरस्वती करपात्री जी महाराज' के नाम से प्रतिष्ठित हुए।
वे दिन में केवल एक बार भोजन करते थे और हाथ की अंजुली में जितना आ जाए, उतना ही भोजन ग्रहण करते थे। इसी कारण उन्हें ‘करपात्री’ कहा गया, जिसका अर्थ होता है—‘हाथ में भोजन करने वाले।’
धार्मिक जीवन के साथ-साथ उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में भी सक्रिय योगदान दिया। वाराणसी में उन्होंने ‘धर्मसंघ’ की स्थापना की, जो परंपरागत हिंदू धर्मशास्त्र के प्रचार-प्रसार हेतु समर्पित था। वे अद्वैत वेदांत के प्रबल अनुयायी और विद्वान शिक्षक थे। सन् 1948 में उन्होंने ‘अखिल भारतीय राम राज्य परिषद’ नामक राजनीतिक दल की स्थापना की, जो परंपरावादी हिंदू मूल्यों को आधार बनाकर कार्य करता था। इस दल ने 1952 के पहले आम चुनाव में 3 लोकसभा सीटें जीतीं। राजस्थान जैसे हिन्दी भाषी क्षेत्रों में 1952, 1957 और 1962 के विधानसभा चुनावों में इस दल को अच्छी सफलता मिली।
स्वामी करपात्री जी गो-रक्षा के कट्टर समर्थक थे। उन्होंने भारत भर में पदयात्राएं कीं और गो-हत्या के विरोध में जनजागरण अभियान चलाया। उन्होंने अनेक बार सरकारों से अनुरोध किया कि भारत में गो-हत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए। जब तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी उनसे मिलने आईं, तब उन्होंने स्वामी जी को आश्वासन दिया, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद इस पर कोई ठोस निर्णय नहीं लिया गया। इस निराशा के बीच स्वामी करपात्री जी ने आंदोलन का निर्णय लिया।
7 नवम्बर 1966 को कार्तिक शुक्ल अष्टमी के दिन, जिसे ‘गोपाष्टमी’ कहा जाता है, स्वामी जी के नेतृत्व में देशभर के संतों ने संसद भवन के सामने विशाल धरना दिया। इस ऐतिहासिक आंदोलन में चारों पीठों के शंकराचार्य, संत परंपराओं के प्रतिनिधि, जैन, बौद्ध, सिख और आर्य समाज के नेता सम्मिलित हुए। लाला रामगोपाल शालवाले और प्रो. रामसिंह जैसे नेता इसमें सक्रिय रहे। संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, पुरी के जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निरंजनदेव तीर्थ और महात्मा रामचन्द्र वीर जैसे संतों के आमरण अनशन ने इस आंदोलन को प्राणवायु दी। लेकिन जब सरकार ने माँगें नहीं मानीं, तो निहत्थे संतों पर पुलिस द्वारा गोली चलाई गई, जिसमें अनेक संतों का बलिदान हुआ और पूज्य शंकराचार्यों पर भी लाठियाँ चलीं।
इस घटना से व्यथित होकर तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारीलाल नन्दा ने इस्तीफा दे दिया और स्वयं को तथा सरकार को इस हिंसा का उत्तरदायी ठहराया। संत रामचन्द्र वीर का 166 दिनों का अनशन भी इस आंदोलन की अभूतपूर्व मिसाल बना। इतने बड़े आंदोलन को राष्ट्रीय अखबारों ने दबा दिया, केवल 'आर्यावर्त', 'केसरी' और ‘कल्याण’ जैसी पत्रिकाओं ने इस घटना को विस्तार से प्रकाशित किया।
स्वामी करपात्री जी न केवल धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में बल्कि साहित्यिक क्षेत्र में भी महान योगदानकर्ता थे। उन्होंने 2400 श्लोकों की विशाल ‘रामायण मीमांसा’ की रचना की, जिसमें 1100 पृष्ठ हैं। इसके अलावा 'भागवत सुधा', 'रस मीमांसा', 'गोपीगीत भक्ति सुधा', ‘वेदार्थ पारिजात’, ‘विचार पियूष’ तथा ‘मार्क्सवाद और रामराज्य’ जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की।
स्वामी करपात्री महाराज का देहावसान 7 फरवरी 1982 को वाराणसी के केदार घाट पर हुआ। उनके निधन से उनके शिष्य, अनुयायी और समूचा हिंदू समाज शोकाकुल हो गया। परंतु धर्म, दर्शन, गो-रक्षा और भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण में उनके योगदान को युगों तक स्मरण किया जाता रहेगा।