वैश्विक स्तर पर आज की आर्थिक परिस्थितियों के बीच भारत का प्राचीन आर्थिक दर्शन संभवत: आशा की किरण के रूप में दिखाई पड़ता है। अमेरिका जैसा शक्तिशाली देश, अपने अहंकार के मद में, जब अपने पड़ौसी देशों एवं हितचिंतक देशों के साथ ही अन्य अविकसित एवं विकासशील देशों को भी नहीं बक्श रहा है एवं इन देशों से अमेरिका को होने विभिन्न उत्पादों के निर्यात पर टैरिफ का डंडा चला रहा है, तब भारतीय आर्थिक दर्शन की “वसुधैव कुटुंबकम”, “सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय” एवं “सर्वे भवंतु सुखिन सर्वे संतु निरामया:” जैसी नीतियों की याद सहज रूप से ही आ जाती है। भारतीय आर्थिक दर्शन के अनुसार, अर्थ का अर्जन करना बुरी बात नहीं है परंतु इसका धर्म के अनुसार उपयोग नहीं करना बुरी बात है। ट्रम्प प्रशासन की वर्तमान नीतियों से स्पष्ट झलकता है कि अथाह मात्रा में इकट्ठे किए गए धन का उपयोग विश्व के अन्य देशों को डराने धमकाने के लिए किया जा रहा है। अमेरिका आज कई देशों पर दबाव बनाता हुआ दिख रहा है कि यदि किसी देश ने उसकी शर्तों के अनुरूप अमेरिका के साथ द्विपक्षीय आर्थिक समझौता नहीं किया तो उस देश से होने वाले वस्तुओं के अमेरिका में आयात पर भारी मात्रा में टैरिफ लगाया जाएगा।
यह सत्य है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान विश्व के कई देश विकास की राह पर तेज गति से आगे बढ़े हैं और आज यह सम्पन्न देशों की श्रेणी में शामिल हो गए हैं। इन देशों के नागरिकों को भौतिक सुख की प्राप्ति तो हुई है परंतु उनके जीवन में मानसिक सुख का पूर्णत: अभाव है। अतः इनके जीवन में संतोष का अभाव है और यह लोग कुंठा की भावना में बहते हुए कुछ इस प्रकार के निर्णय ले रहे हैं जिससे समाज के अन्य लोगों का अहित हो रहा है। पश्चिमी देशों में पूंजीवादी नीतियों के चलते कुछ लोग केवल अपने आर्थिक विकास की ओर पूरा ध्यान केंद्रित किए हुए हैं, समाज के अन्य नागरिकों की स्थिति कैसी है, इस बात पर उनका ध्यान बिलकुल नहीं है। अपने को अधिक धनवान बनाने की प्रक्रिया में वे अपने ही समाज के नागरिकों का अहित करने से भी नहीं चूकते हैं। आज अमेरिका की स्थिति भी लगभग यही है। आज वह पूरे विश्व की चौधराहट प्राप्त करने के प्रयास में कुछ इस प्रकार की नीतियों का अनुपालन करता हुआ दिखाई दे रहा है जो अन्य देशों का नुक्सान कर सकती हैं। परंतु, अन्य देशों को होने वाले नुक्सान के प्रति अमेरिका आज पूर्णत: अनजान सा बना हुआ है। पूरे विश्व की आर्थिक स्थिति डावांडोल होती हुई दिखाई दे रही है। यह सब तब हो रहा है जब विश्व की बहुत बड़ी संख्या में नागरिक भूख, गरीबी एवं बेकारी से त्रस्त है। समाज का एक वर्ग अमीर से और अधिक अमीर हो रहा है तो समाज का दूसरा वर्ग गरीब से और अधिक गरीब हो रहा है। आय की असमानता की खाई निरंतर चौड़ी होती जा रही है। कुल मिलाकर अमेरिका सहित विश्व के कई विकसित देशों के नागरिक आज अपनी आर्थिक तरक्की से संतुष्ट नहीं है एवं भौतिक सुख होने के बावजूद मानसिक बीमारियों से ग्रस्त नजर आ रहे हैं।
हिंदू सनातन संस्कृति के अनुसार मनुष्य का इस धरा पर जन्म, परेशनियां झेलने के लिए नहीं हुआ है। बल्कि, इस मानव जीवन को समस्याओं रहित बनाकर, शांतिपूर्ण तरीके से जीने के लिए हुआ है। आज विभिन्न देशों के नागरिक खाने पीने की वस्तुओं, अच्छे वस्त्रों, बड़े एवं सुविधाजनक निवास स्थान, मनोविनोद के साधनों में वृद्धि, वासना की वृद्धि एवं वासना की संतुष्टि के लिए विभिन्न साधनों में वृद्धि, सुख के लिए उपभोग में वृद्धि जैसे कार्यों पर अपना पूरा ध्यान केंद्रित किए हुए है। जैसे इस धरा पर जीवन जीने का लक्ष्य यही है। इच्छाओं की पूर्ति सम्भव नहीं है। एक इच्छा की पूर्ति होती है तो दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है। यह पूंजीवाद में निहित पश्चिमी विचार है। इस धारणा को और अधिक स्पष्ट करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक पूजनीय श्री गुरुजी (श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर) कहते हैं कि “पश्चिम के सुख की अवधारणा पूर्णतया प्रकृति जन्य इच्छाओं की संतुष्टि पर केंद्रित है, अतः उनके जीवन स्तर को उठाने का अर्थ भी केवल भौतिक आनंद की वस्तुओं को अधिकाधिक जुटाना है। इससे व्यक्ति अन्य विचारों एवं एषणाओं को छोड़कर केवल इसी में पूर्णतया संलग्न हो जाता है। भौतिक सुख साधनों की प्राप्ति की इच्छा धन संग्रह को जन्म देती है। अधिकाधिक धन प्राप्ति हेतु शक्ति आवश्यक हो जाती है; किंतु भौतिक सुख की अतृप्त क्षुधा व्यक्ति को अपनी राष्ट्रीय सीमाओं तक ही नहीं रुकने देती। सबल राष्ट्र, राज्य शक्ति के आधार पर दूसरों के दमन व शोषण का भी प्रयास करते हैं। इसमें से संघर्ष व विनाश का जन्म होता है। एक बार यह प्रक्रिया प्रारम्भ हुई कि समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती। सभी नैतिक बंधन विच्छिन हो जाते हैं। सामान्य मानवीय संवेदनायें सूख जाती हैं। मनुष्य और पशु में अंतर स्थापित करने वाले मूल्य एवं गुण समाप्त हो जाते हैं।” हालांकि उक्त विचार आज से लगभग 65/70 वर्ष पूर्व व्यक्त किए गए थे परंतु यह आज अमेरिका की स्थिति पर सटीक बैठते हैं। “मेक अमेरिका ग्रेट अगेन” के नारे के साथ सत्ता में आने वाले श्री डानल्ड ट्रम्प आज पूरे विश्व में अराजकता की सत्ता स्थापित करने में लगे हुए हैं। केवल और केवल अमेरिका के आर्थिक हितों को प्राथमिकता देना है, इससे अन्य राष्ट्रों (अविकसित एवं विकासशील देशों सहित) का कितना भी नुक्सान हों परंतु अमेरिकी उद्योगपतियों एवं व्यवसायीयों के हित सुरक्षित रहने चाहिए, उनकी आर्थिक तरक्की होते रहना चाहिए।
भारतीय आर्थिक चिंतन पश्चिम के आर्थिक चिंतन के ठीक विपरीत है। हिंदू सनातन संस्कृति के अनुसार, अर्थ एवं भोग को धर्म के अनुसार ही कार्यशील रखना चाहिए। इस संदर्भ में संयम को प्राथमिकता दी गई है। कोई भी कार्य, सीमा के अंदर किया जाय तो उचित होता है। सीमा के बाहर जाकर किया गया कार्य, समाज में अस्थिरता प्रतिपादित कर सकता है। अत्यधिक भोग, भारतीय संस्कृति में निषेध है। अर्थ के अधिक मात्रा में अर्जन पर हालांकि किसी प्रकार का निषेध नहीं है परंतु अर्थ के उपभोग पर जरूर कुछ सीमाएं निर्धारित हैं। अर्थ का उपयोग स्वयं की सुख प्राप्ति के लिए उपभोग करने के उपरांत परिवार, समाज, धर्म की रक्षा, संस्कृति के विस्तार, भविष्य की सुरक्षा के लिए बचत, आदि के लिए करना आवश्यक माना गया है। पश्चिमी सभ्यता के अनुसार तो अर्थ का उपभोग केवल एवं केवल स्वयं के लिए किया जाता है एवं येन केन प्रकारेण व्यक्ति द्वारा इसकी वृद्धि हेतु प्रयास किए जाते हैं। सुख को तो अपने अंदर महसूस किया जा सकता है। बाहरी भौतिक आवरण पहनकर सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इसी संदर्भ में श्री गुरुजी कहते हैं कि “सब बातों का विचार हमारे पूर्वजों ने भी किया था। समय पर वर्षा होना चाहिए, पृथ्वी पर धन धान्य की समृद्धि रहना चाहिए, समाज को ऐच्छिक सुख समृद्धि की प्राप्ति होना चाहिए, कोई भी दुखी न रहे - ऐसी प्रार्थना उन्होंने की है, परंतु उस समय भी उनको अनुभव हुआ कि मनुष्य केवल वासनाओं का पुतला नहीं है। वासनाओं की तुष्टि कुछ समय के लिए आनंद देती हैं, किंतु हमेशा के लिए वह आनंद नहीं दे सकती। मनुष्य तो ऐसा सुख चाहता है, जो कभी क्षीण न हो, उसमें कभी बाधा न आ सके, व्यत्यय न आ सके, यानी वह अबाधित, नित्य सुरक्षित और चिरकालिक सुख की कामना करता है”।
उक्त विचार को आगे बढ़ाते हुए श्री गुरुजी कहते हैं कि “अपनी भारतीय प्रणाली में जिसे अर्थशास्त्र कहते हैं, उसमें आज जैसा केवल आर्थिक पहलू मात्र नहीं था। हमारे यहां अर्थशास्त्र का ही दूसरा नाम नीतिशास्त्र था। आज हमें अपने सिद्धांतों के आधार पर मौलिक चिंतन करना चाहिए। हम दुनिया भर के विचार प्रवाहों को परखेंगे तथा अपनी स्वतंत्र मौलिक राष्ट्रीय चिंतनधारा के अनुरूप अपना रास्ता अपनाएंगे। उदाहरण के लिए महात्मा गांधी जी ने अपने जीवन काल में संपत्ति के विकेंद्रीकरण के लिए ट्रस्टीशिप का मार्ग प्रतिपादित किया। उनके इस ट्रस्टीशिप के विचार में माना गया है कि मनुष्य के उत्पादन सामर्थ्य में कोई कमी करने की जरूरत नहीं जीविका के साधनों द्वारा जितना चाहे, उसे उत्पादन करने दो, परंतु संग्रह का वह अधिकारी नहीं है। जीविका के साधनों का प्रयोग करने पर जो संपत्ति एकत्रित होती है, वह समाज की है, अपने उपभोग बढ़ाने के लिए नहीं। वह सम्पत्ति उसने समाज को दे देनी चाहिए।”
इस धरा पर प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुख वासनाओं-इच्छाओं को बढ़ाते जाने में नहीं है, सुख तो वासनाओं-इच्छाओं को कम करते जाने की मानसिकता में से मिलता है। इस दृष्टि से श्री गुरुजी इच्छाओं व आवश्यकताओं को बढ़ाते जाने वाले आर्थिक चिंतन को स्वीकार नहीं करते थे, अपितु “आवश्यकता विहीन” की दिशा में चलने वाले अर्थशास्त्र के समर्थक थे। साथ ही, समाज के समस्त क्रिया कलापों के दौरान यह भी ध्यान रखना होगा कि कुल मिलाकर सम्पूर्ण समाज के सुख में वृद्धि हो जो शोषण से मुक्ति एवं वितरण की समानता की ओर संकेत करती है। वेसे भी सुख की प्राप्ति मनुष्य अकेला नहीं कर सकता, समाज का सहयोग चाहिए। अतः सुख का आधार परस्परानुकूलता हैं, संघर्ष नहीं।
कुल मिलाकर प्राचीन भारतीय आर्थिक दर्शन में ट्रम्प प्रशासन के लिए बहुत बड़ी सीख छुपी हुई है।
लेखक - प्रहलाद सबनानी