हिंदी साहित्य के उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को बनारस के लमही गाँव में हुआ था। उनका असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था और उर्दू रचनाओं में वे नवाब राय के नाम से जाने जाते थे। उनके पिता अजायब राय डाकखाने में एक साधारण नौकरी करते थे। मात्र 13 साल की उम्र से ही प्रेमचंद ने लेखन शुरू कर दिया था, जिसकी शुरुआत कुछ नाटकों और बाद में उर्दू में एक उपन्यास से हुई।
उनकी पहली प्रकाशित कृति "सोजे-वतन" नामक एक उर्दू संग्रह था, जिसे ब्रिटिश सरकार ने जनता को भड़काने वाला मानकर 1910 में जब्त कर लिया था। हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने उनकी सभी प्रतियों को उनकी आँखों के सामने जलवा दिया और उन्हें बिना अनुमति के लिखने पर भी पाबंदी लगा दी। इसी घटना के बाद, 20वीं सदी में उर्दू में प्रकाशित होने वाली 'ज़माना' पत्रिका के संपादक और उनके घनिष्ठ मित्र मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें "प्रेमचंद" नाम से लिखने की सलाह दी, जिसके बाद वे हमेशा के लिए इसी नाम से विख्यात हो गए।
प्रेमचंद ने अपने साहित्य और लेखों के माध्यम से समाज और राजनीति पर गहरा प्रभाव डाला। उन्होंने 'माधुरी' और 'मर्यादा' जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया और 'हंस' तथा 'जागरण' जैसे समाचार पत्र भी प्रकाशित किए। उनके पहले हिंदी उपन्यास का नाम 'सेवासदन' था, जो 1918 में प्रकाशित हुआ। यह मूल रूप से उर्दू में 'बाजारे-हुस्न' नाम से लिखा गया था, लेकिन इसका हिंदी रूप पहले प्रकाशित हुआ। 1921 में किसान जीवन पर आधारित उनका उपन्यास 'प्रेमाश्रम' प्रकाशित हुआ, जो अवध के किसान आंदोलनों के दौर में किसानों के जीवन पर लिखा गया हिंदी का पहला उपन्यास माना जाता है। इसके बाद उन्होंने 'रंगभूमि', 'कायाकल्प', 'निर्मला', 'गबन', और 'कर्मभूमि' जैसे कई महत्त्वपूर्ण उपन्यास लिखे। उनका उपन्यास लेखन का सफर 1936 में 'गोदान' के साथ अपने चरम पर पहुँचा, जिसे विश्व साहित्य में भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
प्रेमचंद ने कुल 300 से ज़्यादा कहानियाँ, 3 नाटक, 15 उपन्यास, 10 अनुवाद और 7 बाल-पुस्तकें लिखीं। उनकी प्रसिद्ध कहानियों में 'कफन', 'पूस की रात', 'पंच परमेश्वर', 'बड़े घर की बेटी', 'बूढ़ी काकी', और 'दो बैलों की कथा' शामिल हैं। उन्होंने 'टोल्त्स्टॉय की कहानियाँ', गाल्स्वर्दी के तीन नाटकों का अनुवाद, 'चांदी की डिबिया', और 'न्याय' जैसी कृतियों का भी अनुवाद किया। उनके नाटकों में 'कर्बला', 'संग्राम', और 'प्रेम की वेदी' (1933) विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।
अपने जीवनकाल में उन्हें किसी औपचारिक पुरस्कार से सम्मानित नहीं किया गया, लेकिन उनके साहित्यिक योगदान को आज भी याद किया जाता है। महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाले साहित्यकारों को 'प्रेमचंद पुरस्कार' प्रदान किया जाता है। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान भी 'प्रेमचंद स्मृति पुरस्कार' प्रदान करता है। उनकी जन्मशती के अवसर पर 31 जुलाई, 1980 को भारतीय डाक विभाग ने 30 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया था, और गोरखपुर में जिस स्कूल में उन्होंने शिक्षक के रूप में कार्य किया था, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है।
1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अध्यक्ष के रूप में चुने जाने के कुछ समय बाद, कई दिनों की बीमारी के पश्चात् 8 अक्टूबर, 1936 को बनारस में उनका निधन हो गया। प्रेमचंद की कई रचनाओं का उनकी मृत्यु के बाद रूसी और अंग्रेजी में भी अनुवाद हुआ, जो उनकी वैश्विक महत्ता को दर्शाता है।