सन्त तिरुवल्लुवर जाति से जुलाहा थे। लोकसेवी सन्त होकर भी वे अपनी आजीविका स्वपरिश्रम से अर्जित करते। वे बड़े ही धीरवान् तथा क्षमाशील थे। एक दिन अतीव परिश्रम से तैयार की हुई साड़ी को लेकर बिक्री के लिये बाजार में बैठे ही थे कि एक युवक उनके पास आया। उसे तिरुवल्लुवर की साधुता पर शंका होती थी। उसने उनकी परीक्षा लेने के विचार से उस साड़ी का मूल्य पूछा। सन्त ने विनीत वाणी में दो रुपये बताया। युवक ने उसे उठाकर उसके दो टुकड़े किये और फिर उनका मूल्य पूछा। सन्त ने उसी निश्छल स्वर से एक-एक रुपया बताया। युवक ने फिर प्रत्येक के दो टुकड़े कर मूल्य पूछा और सन्त ने शान्त स्वर में आठ-आठ आने बताया।
युवक ने पुनः प्रत्येक के दो-दो टुकड़े कर मूल्य पूछा और सन्त ने धीर गम्भीर स्वर में ही उत्तर दिया, "चार-चार आने।" युवक टुकड़े करता गया और दाम पूछता गया। वह सोचता था कि कभी तो यह व्यक्ति क्रोधित होगा, किन्तु सन्त का हृदय तो नवनीत-सम था, वे शान्त भाव से मूल्य बताते चले गये। आखिर फाड़ते-फाड़ते जब वह साड़ी तार-तार हो गयी, तो युवक उसका गोला बनाकर फेंकते हुए बोला, "अब इसमें रहा ही क्या है कि इसके पैसे दिये जायें!" सन्त चुप ही रहे। तब युवक ने धन का अभिमान प्रदर्शित करते हुए उन्हें दो रुपये देते हुए कहा, "यह लो साड़ी का मूल्य!" किन्तु तिरुवल्लुवर बोले, "बेटा! जब तुमने साड़ी खरीदी ही नहीं, तो मैं तुमसे दाम भी कैसे लूँ?" अब तो युवक का उद्दण्ड हृदय पश्चाताप से दग्ध होने लगा। विनीत हो वह उनसे क्षमा माँगने लगा।
तिरुवल्लुवर की आँखें डबडबा आयीं। वे बोले, "तुम्हारे दो रुपये देने से तो इस क्षति की भरपाई नहीं होगी। क्या तुमने कभी सोचा कि कपास पैदा करने में किसान ने कितना परिश्रम किया होगा ? उसको धुनने और सूत बुनने में कितने लोगों का समय और श्रम लगा होगा ? जब साड़ी बुनी गयी, तब मेरे कुटुम्बियों ने कितनी कठिनाई उठायी होगी ?” युवक की आँखों से पश्चाताप के आँसू निकल पड़े। वह बोला, "मगर आपने मुझे साड़ी फाड़ने से रोका क्यों नहीं ?” सन्त ने जवाब दिया, "रोक सकता था, मगर तब क्या तुम्हें शिक्षा देने का ऐसा अवसर मिल सकता था?" युवक को बोध हुआ कि जो शिक्षा क्षमा एवं प्रेम से दी जाती है, वही अन्तःकरण में चिरकाल तक पैठकर प्रकाश दता रहता है।