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गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर: एक बहुमुखी प्रतिभा

Date : 07-Aug-2025
रवीन्द्रनाथ टैगोर , जिन्हें विश्वकवि के नाम से जाना जाता है, एक महान कवि, साहित्यकार, दार्शनिक, कहानीकार, संगीतकार, चित्रकार और नाटककार थे। वे साहित्य के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार जीतने वाले पहले एशियाई भी थे। टैगोर का जन्म 7 मई 1861 को बंगाल में हुआ था। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और उनकी रचनाओं ने न केवल भारतीय साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि समाज को एक नई दिशा भी दी।

टैगोर ने महज आठ वर्ष की उम्र में अपनी पहली कविता लिखी और 16 वर्ष की आयु में उनकी पहली लघुकथा प्रकाशित हुई, जिसने बांग्ला साहित्य में एक नए युग की शुरुआत की। उन्होंने आधुनिकतावाद को अपनाते हुए बंगाली साहित्य और संगीत के साथ-साथ भारतीय कला को भी नया स्वरूप दिया। सामाजिक कुरीतियों जैसे बाल विवाह और दहेज प्रथा पर उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से प्रहार किया।

1905 में जब बंगाल का विभाजन हुआ, तब उन्होंने ‘बांग्लार माटी बांग्लार जल’ गीत के माध्यम से लोगों को एकजुट किया। वे उस समय लिख रहे थे जब भारत स्वतंत्रता संग्राम से गुजर रहा था और वे इस संघर्ष में पूरे मन से शामिल थे। उन्होंने ‘गीतांजलि’ नामक प्रसिद्ध काव्य संग्रह की रचना की, जिसका अंग्रेजी अनुवाद उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाने में सहायक बना। उनकी रचनाओं में देशभक्ति और स्वतंत्रता आंदोलन की भावना स्पष्ट दिखाई देती है।

साहित्य के अतिरिक्त वे संगीत के क्षेत्र में भी अत्यंत योगदान देने वाले कलाकार थे। उन्होंने लगभग दो हजार गीतों की रचना की, जिन्हें 'रवींद्र संगीत' के नाम से जाना जाता है, जो बांग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग बन चुका है। टैगोर एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने तीन देशों के लिए राष्ट्रगान की रचना की—भारत के लिए ‘जन गण मन’, बांग्लादेश के लिए ‘अमर सोनार बांग्ला’ और श्रीलंका के लिए ‘नमा नमा श्रीलंका माता’ (जिसे बाद में रूपांतरित किया गया)।

टैगोर ने व्यावहारिक शिक्षा पर बल देते हुए शांति निकेतन की स्थापना की, जिसे बाद में विश्व भारती विश्वविद्यालय में परिवर्तित किया गया। उनका मानना था कि शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि प्रकृति और अनुभवों के माध्यम से सीखने की प्रक्रिया होनी चाहिए। 29 दिसंबर 1918 को उन्होंने विश्व भारती की नींव रखी, जिसमें शिक्षा को एक समग्र विकास की प्रक्रिया माना गया।

महिलाओं की स्वतंत्रता, शिक्षा और उनके आत्मसम्मान को लेकर टैगोर के विचार काफी प्रगतिशील थे। वे एक ऐसे समाज की कल्पना करते थे जिसमें महिलाओं की आवाज़ और आकांक्षाओं को पूर्ण सम्मान मिले। उनके समाज और संस्कृति पर विचार प्रकृति से गहरे रूप से जुड़े हुए थे।

उनकी रचनाएं, विचार और योगदान आज भी लोगों को प्रेरणा देते हैं। अंग्रेज सरकार ने उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें ‘नाइटहुड’ की उपाधि दी थी, जिसे उन्होंने जलियांवाला बाग हत्याकांड के विरोध में लौटा दिया। उन्होंने महात्मा गांधी को ‘महात्मा’ की उपाधि दी थी, जिसके बदले गांधीजी ने उन्हें 'गुरुदेव' कहकर सम्मानित किया।

टैगोर का अंतिम समय काफ़ी कष्टदायक था। 1937 में वे कोमा में चले गए और 7 अगस्त 1941 को कोलकाता स्थित जोरासांको हवेली में उनका निधन हुआ। यह वही स्थान था जहाँ उन्होंने अपना बचपन बिताया था। उनके सम्मान में भारत और बांग्लादेश में कई संग्रहालय स्थापित किए गए हैं, जो आज भी उनके जीवन और रचनाओं की याद दिलाते हैं। टैगोर की साहित्यिक विरासत आज भी उतनी ही प्रासंगिक और प्रेरणादायक है जितनी उनके जीवनकाल में थी।
 
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