- डॉ. मयंक चतुर्वेदी
टैरिफ, जिसे अब तक केवल व्यापार घाटा सुधारने या घरेलू उद्योगों की रक्षा के आर्थिक औज़ार के रूप में देखा जाता था, डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में एक नए रूप में उभरकर सामने आया है, आज यह जियो पॉलिटिक्स का नया हथियार बनकर उभरा है । वॉशिंगटन पोस्ट द्वारा उजागर अमेरिकी प्रशासन के आंतरिक दस्तावेज़ बताते हैं कि ट्रंप ने टैरिफ को “स्विस आर्मी नाइफ” की तरह इस्तेमाल किया है, जो एक ऐसा बहुउद्देशीय औज़ार है जिससे एक साथ कई काम किए जा सकते हैं। यह बदलाव केवल आर्थिक नीति का मामला नहीं, निश्चित ही वैश्विक कूटनीति, सामरिक समीकरण और यहां तक कि वर्तमान दौर में यह निजी व्यावसायिक हितों के लिए आर्थिक हथियार के प्रयोग का उदाहरण बन गया है। जो डोनाल्ड ट्रंप, सार्वजनिक मंचों पर टैरिफ को ‘अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा’ और ‘न्यायपूर्ण व्यापार’ का अनिवार्य साधन बताते थे, पर दस्तावेज़ दिखाते हैं कि असल मकसद उनका कई बार अलग होता था। व्यापार वार्ताओं में ऐसे मुद्दे जोड़ दिए जाते, जिनका पारंपरिक रूप से शुल्क समझौतों से कोई लेना-देना नहीं होता, जैसे रक्षा अड्डों की अनुमति, सैन्य तैनाती का समर्थन, पर्यावरण नीतियों में बदलाव या हथियार खरीद की शर्तें। यह अंतरराष्ट्रीय व्यापार की परंपरागत समझ को बदल देने वाला कदम है।
भारत इसका प्रमुख उदाहरण है। वॉशिंगटन पोस्ट की यह रिपोर्ट बताती है कि व्हाइट हाउस ने भारत पर अमेरिकी रक्षा उपकरण खरीदने और अमेरिका के साथ रक्षा सहयोग बढ़ाने का दबाव बनाने के लिए टैरिफ को हथियार बनाया। रूस से कच्चा तेल खरीदने के बहाने 50 प्रतिशत तक टैरिफ लगाने की धमकी दी गई, जिसे बाद में लागू भी किया गया। भारत से अपेक्षा थी कि वह न केवल रक्षा बजट बढ़ाए बल्कि सामरिक मुद्दों पर अमेरिका के साथ पर्याप्त रूप से संरेखित हो, ताकि टैरिफ में रियायत मिले। यह दबाव अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति का हिस्सा था, जिसका लक्ष्य भारत को रूस से दूर करना और चीन के खिलाफ गठजोड़ में मजबूती लाना था।
यह नीति केवल भारत तक सीमित नहीं रही। दक्षिण कोरिया से रक्षा खर्च 2.6 प्रतिशत से बढ़ाकर 3.8 प्रतिशत करने और अमेरिकी सैनिकों की तैनाती पर अधिक खर्च वहन करने की मांग की गई। प्रारंभिक मसौदों में सियोल से चीन के खिलाफ सार्वजनिक बयान जारी करने तक का सुझाव था। कंबोडिया पर 49 प्रतिशत टैरिफ की धमकी देकर अमेरिकी नौसेना को वहां के रियाम नेवल बेस पर प्रशिक्षण अभ्यास की अनुमति दिलाने का प्रयास हुआ। ब्राजील को चेतावनी दी गई कि अगर पूर्व राष्ट्रपति बोल्सोनारो के खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं रोकी गई तो 50 प्रतिशत टैरिफ लगा दिया जाएगा। कोलंबिया में अवैध अप्रवासियों को बाहर निकालने के लिए टैरिफ का इस्तेमाल किया गया।
रिपोर्ट का एक और चौंकाने वाला पहलू यह है कि अमेरिकी विदेश विभाग ने कुछ मौकों पर निजी कंपनियों, जैसे ऊर्जा क्षेत्र की शेवरॉन और एलन मस्क की स्टारलिंक के लिए अन्य देशों से रियायतें दिलाने के विकल्पों पर चर्चा की। यह अंतरराष्ट्रीय नीति और कॉर्पोरेट हितों के खतरनाक मेल का संकेत देता है। वस्तुत: इसीलिए आज अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि कार्यालय में 25 साल काम कर चुकीं वेंडी कटलर कहती हैं कि उन्होंने पहले कभी किसी व्यापार समझौते में इस तरह की शर्तें नहीं देखीं। यह अंतरराष्ट्रीय व्यापार की परंपरागत “नॉर्म्स” से एक बड़ा विचलन था, जो विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) जैसी संस्थाओं की भूमिका और वैश्विक व्यापार व्यवस्था की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगाता है।
इसे अब हम भारत के संदर्भ में और अधिक गंभीरता से देख सकते हैं; वस्तुत: भारत के लिए यह नीति कई स्तरों पर चुनौती है। पहली- रणनीतिक स्वायत्तता की रक्षा। भारत दशकों से बहुध्रुवीय कूटनीति अपनाता रहा है, जिसमें रूस, अमेरिका, यूरोप, जापान और खाड़ी देशों के साथ संतुलन साधा जाता है। अमेरिकी दबाव इस संतुलन को बिगाड़ सकता है। स्वायत्तता की रक्षा के स्तर पर यह भारत को कमजोर करने वाली है। दूसरी- ऊर्जा सुरक्षा के क्षेत्र में। रूस से सस्ता कच्चा तेल भारत की अर्थव्यवस्था के लिए अहम है; टैरिफ धमकियां इस आपूर्ति को बाधित कर सकती हैं। हालांकि अभी ऐसा हुआ नहीं, पर कोशिश तो यही है। तीसरी बात यह कि रक्षा खरीद में विविधता के स्तर पर केवल अमेरिकी हथियारों पर निर्भरता तकनीकी और रणनीतिक स्वतंत्रता को सीमित कर सकती है। जिसके लिए ड्रंप ने अपने प्रयास जारी रखे हुए हैं।
यह एक तथ्य है कि आर्थिक साधनों का इस्तेमाल राजनीतिक दबाव के लिए नया नहीं है। औपनिवेशिक दौर में व्यापार रियायतें राजनीतिक नियंत्रण का औजार थीं। शीत युद्ध में अमेरिका और सोवियत संघ ने सहायता, हथियार और व्यापार समझौतों को सामरिक प्रभाव के लिए इस्तेमाल किया। फर्क यह है कि ट्रंप युग में यह सब खुले तौर पर, व्यापक पैमाने पर और निजी कॉर्पोरेट हितों के साथ जुड़कर हो रहा है। कहना होगा कि ट्रंप प्रशासन की टैरिफ नीति ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक नया दौर शुरू किया है, जिसमें आर्थिक औज़ारों को राजनीतिक और सामरिक लक्ष्यों के लिए खुलकर प्रयोग किया जा रहा है। भारत जैसे देशों के लिए यह आवश्यक है कि वे इस नई हकीकत को समझें, उसके अनुरूप अपनी रणनीति बनाएं और आत्मनिर्भरता के साथ-साथ बहुआयामी कूटनीतिक संबंधों को मजबूत करें।
अत: कहना होगा कि टैरिफ अब सिर्फ व्यापार संतुलन का साधन नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति का सक्रिय हथियार है, ऐसे में इसकी समझ और जवाबदेही ही किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति की मजबूती का पैमाना होगी। इस स्थिति से निपटने के लिए फिलहाल तो भारत को यही कारणा है कि वह बहुआयामी नीति अपनाए। ऊर्जा और रक्षा आयात के स्रोतों में विविधता लेकर आए। दक्षिण पूर्व एशियाई देशों, अफ्रीका, लातिन अमेरिका और मध्य एशिया के साथ नए संबंध, "मेक इन इंडिया" के तहत रक्षा उत्पादन में स्वदेशीकरण, और संगठन (डब्ल्यूटीओ), 19 सम्प्रभु राज्य, अफ्रीकीय संघ और यूरोपीय संघ के जी-20, ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के संयुक्त संघ ब्रिक्स जैसे मंचों पर टैरिफ के दुरुपयोग के खिलाफ नियम बनाने की पहल करने के लिए आगे आए।
वस्तुत: अभी लगता नहीं कि डोनाल्ड ट्रंप अपने निर्णयों से पीछे हटने वाले हैं। उनके प्रशासन का टैरिफ इस्तेमाल करने का तरीका अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक नए युग की शुरुआत का संकेत है, जिसमें कि वही देश अब सफल होगा जो आत्मनिर्भरता और बहुआयामी कूटनीति की महत्ता पहले से समझ कर उस पर चलता रहा है और जिसके यहां स्वदेशी नीति प्रभावी है ।