यत्रोदकं तत्र वसन्ति हंसाः, स्तथैव शुष्कं परिवर्जयन्ति।
न हंसतुल्येन नरेणभाव्यम्, पुनस्त्यजन्ते पुनराश्रयन्ते ॥
आचार्य चाणक्य यहां हंस के व्यवहार को आदर्श मानकर उपदेश दे रहे हैं कि जिस तालाब में पानी ज्यादा होता है हंस वहीं निवास करते हैं। यदि वहां का पानी सूख जाता है तो वे उसे छोड़कर दूसरे स्थान पर चले जाते हैं। जब कभी वर्षा अथवा नदी से उसमें पुनः जल भर जाता है तो वे फिर वहां लौट आते हैं। इस प्रकार हंस अपनी आवश्यकता के अनुरूप किसी जलाशय को छोड़ते अथवा उसका आश्रय लेते रहते हैं।
आचार्य चाणक्य का यहां आशय यह है कि मनुष्य को हंस के समान व्यवहार नहीं करना चाहिए। उसे चाहिए कि वह जिसका आश्रय एक बार ले उसे कभी न छोड़े। और यदि किसी कारणवश छोड़ना भी पड़े तो फिर लौटकर वहां नहीं आना चाहिए। अपने आश्रयदाता को बार-बार छोड़ना और उसके पास लौटकर आना मानवता का लक्षण नहीं है। अतः नीति यही कहती है कि मैत्री या सम्बन्ध स्थापित करने के बाद उसे अकारण ही भंग करना उचित नहीं।