राइफलमैन जसवंत सिंह रावत, महावीर चक्र (मरणोपरांत) से सम्मानित, भारतीय सेना की वीरता, निष्ठा और देशभक्ति की एक ऐसी अमर गाथा हैं, जो हर भारतीय के हृदय में गर्व और सम्मान की भावना जगाती है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान अरुणाचल प्रदेश के तवांग ज़िले में स्थित नूरानांग की बर्फीली पहाड़ियों में जब दुश्मन की सेना भारी संख्या में हमला कर रही थी, तब भारतीय टुकड़ियों को पीछे हटने का आदेश दे दिया गया। लेकिन राइफलमैन जसवंत सिंह रावत ने आदेश के बावजूद मोर्चा छोड़ने से इनकार कर दिया और अकेले ही कई घंटों तक चीनी सेना का डटकर मुकाबला किया। उन्होंने अद्भुत साहस, धैर्य और युद्ध कौशल का प्रदर्शन करते हुए न केवल दुश्मन को भारी नुकसान पहुँचाया, बल्कि स्थानीय दो महिलाओं—सेलांग और नूरा—की सहायता से ऐसी रणनीति अपनाई, जिससे दुश्मन यह सोचने पर मजबूर हो गया कि भारतीय सेना की एक पूरी टुकड़ी मोर्चे पर डटी हुई है। उन्होंने कई बंकरों में हथियार रखकर और एक-एक करके फायरिंग करके यह भ्रम पैदा किया कि हर पोस्ट पर सैनिक तैनात हैं।
इस रणनीति से भ्रमित होकर चीनी सेना को पीछे हटना पड़ा। अंततः जब दुश्मनों को सच्चाई का आभास हुआ, तब उन्होंने घेराबंदी कर रावत को पकड़ लिया और वीरगति देने से पहले उनका सिर काटकर अपने साथ ले गए। किंवदंती है कि उनके बलिदान के बाद भी उनका शव वापस लाया गया और पूरे सैन्य सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। आज भी जसवंत सिंह रावत की याद में नूरानांग में एक स्मारक-मंदिर मौजूद है, जिसे “जसवंतगढ़” कहा जाता है, जहाँ सैनिक उन्हें देवता के समान पूजते हैं। वहाँ उनकी यूनिफॉर्म, जूते, और हथियारों को आज भी एक सैनिक की तरह रखा जाता है—हर दिन उन्हें चाय दी जाती है, उनकी ड्यूटी लगती है, और उनकी अनुपस्थिति को कभी महसूस नहीं होने दिया जाता। राइफलमैन जसवंत सिंह रावत केवल एक सैनिक नहीं थे, वे भारतीय सेना की आत्मा में रची-बसी उस भावना का नाम हैं, जो मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों तक का उत्सर्ग करने में गर्व महसूस करती है। उनका जीवन, उनका बलिदान, और उनकी कहानी आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनी रहेगी।