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दक्षिण चीन सागर की लहरों पर भारत का बढ़ता प्रभाव

Date : 20-Aug-2025



- डॉ. मयंक चतुर्वेदी

दक्षिण चीन सागर के उफनते पानी में भारत का झंडा अब केवल समुद्री हवाओं में नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति की हलचलों में भी लहराने लगा है। ब्रिटेन में फिलीपींस के राजदूत और पूर्व विदेश मंत्री टेडोरो लॉक्सिन जूनियर ने हाल ही में भारत-फिलीपींस के पहले संयुक्त नौसैनिक अभ्यास के बाद जिस खुलेपन से भारतीय नौसेना की सराहना की, वह केवल एक राजनयिक बयान नहीं। यह उस बदलते सामरिक समीकरण का संकेत है, जिसमें भारत अब एक साहसिक समुद्री शक्ति के रूप में उभर रहा है। ‘लॉक्सिन’ का यह कहना कि "भारतीय नौसेना एकमात्र ऐसी नौसेना है जो जहां चाहती है, वहां जाती है" सीधे तौर पर उस आत्मविश्वास की तरफ इशारा करता है, जिसे भारत ने पिछले एक दशक में “इंडो-पैसिफिक” क्षेत्र में स्थापित किया है।

यह बयान ऐसे समय आया है जब फिलीपींस के जलक्षेत्र में तनाव चरम पर है। हाल ही में स्कारबोरो शोल के पास फिलीपीन तटरक्षक की एक नाव को परेशान करने की कोशिश कर रहे चीनी नौसैनिक और तटरक्षक जहाज आपस में ही टकरा गए। यह घटना दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती आक्रामकता और उसके नतीजों का स्पष्ट उदाहरण है। फिलीपींस के बीआरपी सुलुआन जहाज का वहां होना, मछुआरों को सहायता और आपूर्ति पहुंचाने के लिए था, लेकिन चीन की ‘मिलिटरी कोएर्शन’ नीति के तहत वहां चीनी जहाजों का आना-जाना आम हो गया है। इसी पृष्ठभूमि में भारत और फिलीपींस का संयुक्त नौसैनिक अभ्यास एक साहसिक संदेश लेकर आया कि दक्षिण चीन सागर अब केवल चीन और उसके दावों का खेल का मैदान नहीं रहेगा।

दक्षिण चीन सागर, एशिया का वह सामरिक मोर्चा है जहां भूगोल, संसाधन और शक्ति-राजनीति तीनों का संगम होता है। यहां हर साल लगभग 3 ट्रिलियन डॉलर का व्यापारिक माल गुजरता है। ऊर्जा के बड़े भंडार, समृद्ध मत्स्य संसाधन और रणनीतिक जलमार्ग इसे वैश्विक शक्ति-संतुलन का केंद्र बनाते हैं। चीन ‘नाइन-डैश लाइन’ के नाम पर इस पूरे क्षेत्र पर ऐतिहासिक अधिकार जताता है, जबकि फिलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, ब्रुनेई और ताइवान जैसे देश भी अपने-अपने हिस्सों का दावा करते हैं। अमेरिका और उसके सहयोगी इस क्षेत्र में ‘फ्रीडम ऑफ नेविगेशन’ के नाम पर नौसैनिक गश्त तो करते हैं, लेकिन वे चीन की संवेदनशील जगहों पर खुले टकराव से बचते हैं। इसके उलट, भारत ने पिछले कुछ वर्षों में अपने युद्धपोतों और आपूर्ति जहाजों के जरिए बार-बार यह दिखाया है कि वह किसी भी समुद्री क्षेत्र में, चाहे वह चीन के दावे के भीतर क्यों न हो, अपने मित्र देशों के साथ खड़ा रहेगा।

भारत और फिलीपींस का यह पहला नौसैनिक अभ्यास केवल रक्षा सहयोग का आरंभ नहीं है, बल्कि यह एक रणनीतिक ‘स्टेटमेंट’ है। भारत की ‘Act East Policy’ अब ‘Assert East’ में बदल रही है। यह परिवर्तन महज़ नीतिगत बदलाव नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक यथार्थ का परिणाम है। चीन का आक्रामक रवैया और अमेरिका की हिचकिचाहट के बीच, दक्षिण-पूर्व एशिया के देश ऐसे साझेदार की तलाश में हैं, जो न केवल उनके साथ खड़ा हो, बल्कि उनके साथ मैदान में भी उतरे। भारत इस भूमिका में फिट बैठता है, अपने लोकतांत्रिक मूल्यों, स्वतंत्र विदेश नीति और मजबूत सैन्य क्षमता के साथ।

'लॉक्सिन' के बयान में पश्चिमी देशों की नौसेनाओं पर कटाक्ष भी छिपा था। ‘कास्त्राती’ शब्द का प्रयोग उन्होंने महज़ व्यंग्य के लिए नहीं किया, बल्कि यह दिखाने के लिए किया कि पश्चिमी ताकतें आवाज तो बुलंद करती हैं लेकिन ज़मीनी स्तर पर चीन के खिलाफ निर्णायक कदम उठाने में हिचकिचाती हैं। इसके विपरीत, भारत बिना किसी औपचारिक सैन्य गठबंधन के भी वहां पहुंच जाता है, जहां उसके मित्र को मदद की ज़रूरत होती है। यही कारण है कि 'लॉक्सिन' ने खुले तौर पर कहा कि फिलीपींस का साहस उसकी ताकत है लेकिन इस गश्त में शामिल होने की हिम्मत केवल भारतीयों में है।

ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि भारत-फिलीपींस संबंध केवल आज की रणनीति का नतीजा नहीं हैं। दोनों देशों ने 1950 में राजनयिक संबंध स्थापित किए थे। तब से सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर संबंध बढ़ते रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में रक्षा सहयोग पर विशेष जोर दिया गया है, फिलीपींस ने भारत से ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज़ मिसाइल खरीदने का अनुबंध किया है, जो चीन के समुद्री ठिकानों पर त्वरित और सटीक वार करने में सक्षम है। यह सौदा न केवल सैन्य क्षमता बढ़ाने वाला है, बल्कि यह दोनों देशों के बीच दीर्घकालिक रणनीतिक साझेदारी का भी प्रमाण है।

लॉक्सिन का ‘वूंडेड नी नरसंहार’ का जिक्र भी एक गहरे संदेश के साथ था। यह 1890 की वह घटना थी जिसमें अमेरिकी सेना ने दक्षिण डकोटा में मूल अमेरिकी जनजाति लकोटा सिउक्स के 150 से 300 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। इसमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। ‘लॉक्सिन’ ने यह संकेत देने की कोशिश की कि अमेरिका का इतिहास अपने सहयोगियों और मूल निवासियों के साथ विश्वासघात से भरा है और आज भी उसकी विदेश नीति में वही प्रवृत्ति देखने को मिलती है। यह टिप्पणी अप्रत्यक्ष रूप से यह बताती है कि फिलीपींस जैसे देश अमेरिका पर अंधा भरोसा नहीं कर सकते और भारत उनके लिए एक अधिक विश्वसनीय साझेदार हो सकता है।

भारत की समुद्री रणनीति अब हिंद महासागर से आगे बढ़कर प्रशांत महासागर तक फैल रही है। यह केवल सामरिक उपस्थिति नहीं, बल्कि एक ‘नेट सिक्योरिटी प्रोवाइडर’ की भूमिका है। इसका अर्थ यह है कि भारत केवल अपने हितों की रक्षा नहीं करता बल्कि मित्र देशों की समुद्री सुरक्षा का भी जिम्मा उठाता है। कहना होगा कि यह भूमिका निभाना आसान नहीं है, इसमें नौसैनिक क्षमता, आर्थिक संसाधन और राजनीतिक इच्छाशक्ति, तीनों की आवश्यकता होती है। पिछले एक दशक में भारत ने इन तीनों मोर्चों पर अपनी तैयारी सिद्ध की है।

वस्‍तुत: ‘टेडोरो लॉक्सिन’ का यह बयान अंततः उस भरोसे की अभिव्यक्ति है, जो भारत ने अपने आचरण और नीतियों से अर्जित किया है। दक्षिण चीन सागर में भारत की उपस्थिति अब केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि निर्णायक है। उसकी यह उपस्थिति आगे फिलीपींस, बल्कि वियतनाम, इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे देशों के लिए भी प्रेरणास्रोत बन सकती है। पश्चिमी ताकतों की हिचकिचाहट के बीच, भारत का यह आत्मविश्वास आने वाले वर्षों में एशिया-प्रशांत के शक्ति-संतुलन को नई दिशा दे सकता है। जहां पश्चिमी देश रणनीतिक दस्तावेजों और बयानबाज़ी में उलझे हैं, वहीं भारत लहरों पर अपने कदमों के निशान छोड़ रहा है, कभी मित्र देशों के तट पर, तो कभी विवादित जलक्षेत्रों के बीच।

आज यह केवल एक नौसेना की कहानी नहीं, बल्कि एक ऐसे देश की दास्तान है जो अब वैश्विक मंच पर अपनी जगह खुद तय कर रहा है और यही वह कारण है कि दक्षिण चीन सागर की लहरों में आज भारतीय नौसेना का नाम साह स और भरोसे के पर्याय के रूप में गूंज रहा है। अब आगे इस दिशा में भारत को भविष्य की दृष्टि से जो कदम उठाने चाहिए, उनमें प्रमुख होंगे; भारत-फिलीपींस सहयोग के अंतर्गत नियमित संयुक्त गश्त, समुद्री निगरानी साझा करना, सैन्य प्रशिक्षण और रक्षा उपकरणों की आपूर्ति। ये तीनों ही कदम दक्षिण चीन सागर में भारत की मौजूदगी को स्थायी बना सकते हैं। इसके अलावा, आसियान मंच पर और इंडो-पैसिफिक ओशन इनिशिएटिव में दोनों देश मिलकर क्षेत्रीय सुरक्षा ढांचा मजबूत कर सकते हैं। चीन के लिए यह एक स्पष्ट चुनौती होगी। इसमें भी अच्छी बात है कि यह चुनौती अंतरराष्ट्रीय समुद्री कानून और ‘फ्रीडम ऑफ नेविगेशन’ के सिद्धांत पर आधारित होगी, जो भारत को वैधता और नैतिक ऊंचाई दोनों प्रदान करता है।

 
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