उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम्।
तड़ागोदरसंस्थानां परिदाह इदाम्मससाम् ॥
यहां आचार्य चाणक्य अर्जित धन को सदुपयोग में व्यय करने के बारे में बताते हुए कहते हैं कि तालाब के जल को स्वच्छ रखने के लिए उसका बहते रहना आवश्यक है। इसी प्रकार अर्जित धन का त्याग करते रहना ही उसकी रक्षा है।
आशय यह है कि किसी तालाब के पानी को साफ रखने के लिए उसका बहते रहना ठीक है। रुक जाने पर वह गन्दा हो जाता है। इसी प्रकार धन का भी त्याग करते रहना चाहिए। ऐसा न करने पर व्यक्ति में अनेकों बुराइयां आ जाती हैं। धन को अच्छे कामों में खर्च करते रहना चाहिए। यही धन की सबसे बड़ी रक्षा है।