पुत्र का विवाह परम्परा के अनुसार दस ग्यारह वर्ष की आयु में कर दिया गया। कन्या सात वर्ष की थी तथा माता की देख-रेख में ही उसका चुनाव किया गया था, किन्तु कुछ दिनों पश्चात् माता को अनुभव हुआ कि कन्या का चुनाव ठीक नहीं किया गया है और उसने दूसरी उत्तम गुणोंवाली कन्या खोजकर विवाह सम्बन्धी बातचीत शुरू कर दी। किन्तु तब तक पुत्र कुछ समझदार हो चला था। उसने स्पष्ट रूप से कहा, "माँ! दूसरा विवाह नहीं हो सकेगा।" माँ नाराज हुई, बोली, "यह मेरे निर्णय का विषय है, तुम्हारा नहीं। तुम अभी नासमझ हो। मैंने कन्या पक्ष को आश्वासन भी दे दिया है। क्या तुम्हें इसीलिये पाल-पोसकर बड़ा किया कि तुम्हारे कारण मुझे लज्जित होना पड़े ?"
पुत्र ने उत्तर दिया, "आपका मान मुझे प्राणों से भी प्यारा है। मैं उस पर अपने प्राणों की आहुति तक दे सकता हूँ। पर क्या दूसरा विवाह करने से पहली पत्नी का जीवन नष्ट नहीं हो जायेगा ?"
माता फिर भी न मानी। तब पुत्र बोला, "अच्छा माँ, एक बात बताओ। यदि कन्या के स्थान पर मैं ही उन्हें अयोग्य मालूम पड़ता तो क्या तुम उस कन्या को दूसरा विवाह करने की अनुमति देती ?"
और इस तर्कसंगत प्रश्न का माँ के पास कोई उत्तर न था। पुत्र आगे बोला, "माँ ! हम अपने दी जीवन का ख्याल करते हैं, स्वयं की खुशहाली ही सोचते हैं। यह नहीं देखते कि हमारी खुशहाली से किसी दूसरे को हानि तो नहीं हो रही है। यदि ऐसा होता हो तो फि वह जीवन, जीवन न रहा। हमें हमेशा दूसरे का विचार कर ही कार्य करना चाहिए।
में वास्तविक सुख है, वास्तविक आनन्द है।"
माता ने यह सुना तो बेहद लज्जित हई और बेटे के दूसरे ब्याह की बात बन्द करते गई। यह बालक थे काँग्रेस के प्राणदाता, भारतमाता के एक सच्चे सेवक, दादाभाई नौरोजी ।