महाकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' हिन्दी साहित्य के अमर स्तंभ हैं, जिन्होंने कविता को केवल भावुकता या सौंदर्य की अभिव्यक्ति तक सीमित न रखकर क्रांति, जनचेतना और सामाजिक संघर्ष का माध्यम बनाया। उनका जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में हुआ। वे ऐसे विरले कवि थे जिनकी कविताओं में केवल शब्द नहीं, बल्कि आग की तीव्रता होती थी, जो पढ़ने वालों के हृदय को झकझोर देती थीं। उनकी पुण्यतिथि 24 अप्रैल हमें न केवल उन्हें श्रद्धांजलि देने का अवसर देती है, बल्कि उनके विचारों को जीवन में आत्मसात करने की प्रेरणा भी प्रदान करती है।
दिनकर हिन्दी साहित्य में ओज, वीर रस और राष्ट्रवादी चेतना के अग्रदूत माने जाते हैं। वे जनता की पीड़ा, आकांक्षा और संघर्ष की आवाज़ थे। उनकी कविताएँ स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला और आज़ाद भारत के सामाजिक संघर्षों दोनों को अभिव्यक्त करती थीं। वे राजनीतिक पाखंड, आर्थिक विषमता और सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद करते रहे।
उनकी कविता "समर शेष है" केवल काव्य रचना नहीं, बल्कि राष्ट्रभक्ति और सामाजिक चेतना की हुंकार है:
"समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं,
गांधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं।"
दिनकर बहुआयामी साहित्यकार थे। उन्होंने कविता, निबंध, आलोचना और गद्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी प्रमुख रचनाओं में रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र, हुंकार, परशुराम की प्रतीक्षा, उर्वशी, नीम के पत्ते शामिल हैं। गद्य में उनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं संस्कृति के चार अध्याय, राष्ट्र भाषा और राष्ट्र, तथा धर्म संस्कृति और राष्ट्रवाद।
उनकी सबसे प्रसिद्ध काव्य रचना *रश्मिरथी* में महाभारत के कर्ण का चरित्र नई दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है।
"जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध" – यह पंक्ति निष्क्रियता और कायरता के खिलाफ चेतावनी है।
साथ ही उनकी प्रसिद्ध पंक्ति
"सिंहासन खाली करो कि जनता आती है" लोकतांत्रिक चेतना और जनसत्ता की ताकत का प्रतीक बन गई है।
दिनकर केवल कवि ही नहीं, गंभीर विचारक और सांस्कृतिक चिन्तक भी थे। उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय भारतीय संस्कृति की विविधता और एकता का गहन अध्ययन है। उन्होंने आर्य, द्रविड़, बौद्ध और इस्लामिक संस्कृतियों के आपसी संबंधों को ‘संघर्ष में समरसता’ के सिद्धांत से जोड़ा। उनका राष्ट्रवाद मानवीयता, आधुनिकता और सहिष्णुता पर आधारित था।
वे समकालीन नेताओं गांधी, नेहरू और लोहिया से प्रेरित थे, पर निष्पक्ष आलोचना से भी पीछे नहीं हटे।
उनके अद्भुत साहित्यिक योगदान के लिए उन्हें पद्म भूषण (1959) से सम्मानित किया गया। कविता उर्वशी के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। वे राज्यसभा के सदस्य (1952–1964) भी रहे, जहां उन्होंने किसानों और आम जनता की आवाज़ बुलंद की। भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया।
आज जब देश वैचारिक उथल-पुथल, सामाजिक असमानता और लोकतांत्रिक जिम्मेदारी के सवालों से जूझ रहा है, दिनकर की कविताएं पहले से अधिक प्रासंगिक हो उठी हैं। उनकी पंक्ति
"आजादी रोटी नहीं मगर, भूख सहे यह मुमकिन नहीं।"
हमें याद दिलाती है कि आज़ादी केवल राजनीतिक नहीं, आर्थिक और सामाजिक समानता में भी होनी चाहिए।
दिनकर का साहित्य लोकतंत्र को केवल व्यवस्था नहीं, जीवित जन-जागरण मानता है। उनकी कविताएं युवाओं को ऊर्जा देती हैं, शिक्षकों को मार्गदर्शन और शासकों को उत्तरदायित्व की अनुभूति कराती हैं।
रामधारी सिंह 'दिनकर' हिन्दी साहित्य के ऐसे दीपक हैं जिनकी ज्योति समय के अंधकार में भी बुझती नहीं। उनकी पुण्यतिथि मात्र स्मरण का दिन नहीं, बल्कि उनके विचारों को पुनर्जीवित करने और जीवन में उतारने का संकल्प दिवस है। उनके शब्द आज भी प्रेरित करते हैं, जगाते हैं और सच्चे राष्ट्रनिर्माण की दिशा दिखाते हैं।
