फर्नेस ऑयल और पिटकोक ईंधन बन रहा मौत का वाहक | The Voice TV

Quote :

साहस वह सीढ़ी है जिस पर अन्य सभी सद्गुण टिके रहते हैं- क्लेयर बूथ लूस

Science & Technology

फर्नेस ऑयल और पिटकोक ईंधन बन रहा मौत का वाहक

Date : 01-Feb-2025


प्रदूषण को लेकर दुनिया में भले कितनी भी चिंता व्यक्त की जाती हो, कितने ही बड़े सम्मेलन होते हों, दुनिया के देशों के प्रमुखों द्वारा कितनी ही साझा बैठकें कर चिंता व्यक्त की जाती हो, कितनी ही गंभीरता का ताना-बाना बुना जाता हो पर धरातल पर देखें तो परिणाम बेहद चौंकाने वाले और गंभीर चिंता का कारण है। स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर की 2024 की रिपोर्ट की मानें तो वायु प्रदूषण अकारण मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण बनता जा रहा है। ग्लोबल एयर की रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में सालाना 81 लाख लोग वायु प्रदूषण के कारण मौत का शिकार हो जाते हैं। यदि भारत की बात करें तो सालाना 21 लाख लोग वायु प्रदूषण के कारण अपनी जिंदगी की जंग हार जाते हैं। कहा तो यहां तक जाता है कि दुनिया के देशों में होने वाली 8 मौतों में से एक मौत का प्रमुख कारण वायु प्रदूषण है।

ऐसा नहीं है कि सरकारें या न्यायालय या विश्व के राजनेता इससे चिंतित नहीं हो, अपितु लाख गंभीरताओं के बावजूद जो परिणाम सामने आ रहे हैं वह कहीं ना कहीं हमारी व्यवस्था की पोल खोल कर ही रख रहे हैं। अब भारत की ही बात की जाए तो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 2017 में एक जनहित याचिका पर निर्णय करते हुए फर्नेस ऑयल और पिटकोक के उपयोग पर रोक लगा दी गई। खासतौर से एनसीआर से जुड़े प्रदेशों दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में यह रोक लगाई गई। इसी के क्रम में उत्तराखण्ड, महाराष्ट्र सहित देश के अनेक प्रदेशों में इसको लेकर गाइड लाइन जारी की जा चुकी है। पर इस सबके बावजूद पेट्रोलियम प्लानिंग एण्ड एनालिसिस सेल के आंकड़े साफ-साफ चिढ़ाते नजर आ रहे हैं। इस साल ही अप्रैल, 24 से दिसंबर, 24 तक के आंकड़े बताते हैं कि रोक व सख्ती के बावजूद नौ माह में 49 लाख 95 हजार मैट्रिक टन फर्नेस ऑयल और एलएसएचएस का घरेलू उपयोग हुआ है। इसी तरह से पिटकोक का उपयोग 161 लाख 12 हजार मैट्रिक टन रहा है।

तस्वीर का एक पहलू यह है कि 1997-98 में देश में 114 लाख 94 हजार मैट्रिक टन फर्नेस ऑयल और एलएसएचएस का उपभोग हो रहा था, वहीं 1997-98 में 2 लाख 77 हजार मैट्रिक टन पिटकोक का उपभोग हो रहा था। इसके बाद हालांकि फर्नेस ऑयल व अन्य के उपयोग में उतार-चढ़ाव रहा है पर जहां तक पिटकोक के उपयोग में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। खासतौर से रियल एस्टेट ने पिटकोक के उपयोग को कई गुणा बढ़ा दिया है वहीं, पिछले कुछ सालों से फर्नेस ऑयल व एलएसएचएस के उपयोग में कोई खास कमी नहीं आ रही है। बल्कि सारी बात साफ होती जा रही है कि वायु प्रदूषण में प्रमुख भूमिका निभा रहे इन दोनों ईधनों के उपयोग पर जो कार्रवाई न्यायालय के आदेशों की भावना और एनजीटी के प्रयासों से होना चाहिए था वह कम से कम धरातल पर तो दिखाई नहीं दे रही है।

दरअसल, देखा जाए तो फर्नेस ऑयल व पिटकोक गैर नवीकरणीय जीवाश्म ईंधन है। विशेषज्ञों का यहां तक मानना है कि इनका अनुचित स्टोरेज तक भूमि और भूजल दोनों को नुकसान पहुंचाने वाला है। जब स्टोरेज करने मात्र से नुकसान पहुंचाने वाला है तो इस ईंधन को जलाने से कितना नुकसान हो सकता है इसकी गंभीरता को आसानी से समझा जा सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि फर्नेंस ऑयल के ईंधन के रूप में उपयोग से ग्रीन हाउस में हानिकारक कण फैलते हैं और देखा जाए तो हवा में जहर घुलने लगता है। गंभीरता को इसी से समझा जा सकता है कि पिटकोक और फर्नेस ऑयल में सल्फर हैं। पेटकोक में 65 हजार से 75 हजार पीपीएम और फर्नेस ऑयल में 22 हजार पीपीएम स्तर है। वायु प्रदूषण में पीपीएम का मतलब साफ है कि हवा में गैस के प्रति मिलियन भाग है। रसायन विज्ञान में वायुमण्डल के गैसों की सांद्रता को बताने के लिए पीपीएम का प्रयोग किया जाता है। फर्नेस ऑयल या पिटकोक के ईंधन के रूप में उपयोग से नदी-नाले, जलवायु, पेड़-पौधे, यहां तक कि पशु-पक्षी भी प्रभावित हो रहे हैं।

जहां तक आम आदमी की बात है तो फर्नेंस ऑयल के ईंधन के रूप में उपयोग से वायु प्रदूषण तो होता ही है, साथ ही सीधे यह हमारे फेफड़ों को प्रभावित करता है। इससे फेफड़ों की क्षमता कम होने के साथ ही सांस जनित रोग यहां तक कि फेफड़ों के कैंसर की आशंका तेजी से बनती है। दमा, क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज जिसे सीओपीडी भी कहते हैं और फेफड़ों के कैंसर की संभावना बन जाती है। इसके साथ ही इससे जुड़ी अन्य गंभीर बीमारियां जकड़ने लगती है। यह सब जानकारी के बावजूद फर्नेस ऑयल या पिटकोक जिसे पेट्रोलियम कोक भी कहते हैं, उसके उपयोग में जिस तरह से कमी आनी चाहिए थी या जिस तरह से इनके विकल्प के उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए था वह हो नहीं पाया। सबकुछ होने और सरकार के पास आंकड़े के बावजूद इनके उपयोग पर प्रभावी रोक नहीं लग पा रही है।

दरअसल, सस्ता ईंधन होने के कारण फर्निस ऑयल आदि का उपयोग इण्डस्ट्रीज में तो हो ही रहा है, मेट्रो सिटीज ही नहीं बल्कि अब तो छोटे-बड़े शहरों में भी होटलों, ढाबों, रेस्ट्राओं, चाट-पकौड़ी आदि फास्ट फूड बना कर बेचने वालों द्वारा आम होता जा रहा है। मजे की बात यह है कि फर्नेस ऑयल जैसे वायु प्रदूषण का कारक और स्वास्थ्य के लिए अति गंभीर ईंधन का उपयोग हो रहा है और इसकी पुष्टि पेट्रोलियम प्लानिंग एण्ड एनालिसिस सेल के आंकड़े सिद्ध कर रहे हैं। ऐसे में एनजीटी, राज्यों के पर्यावरण मंत्रालय, पर्यावरण क्षेत्र में कार्य कर रहे सरकारी और गैर सरकारी संगठनों को सक्रिय भागीदारी निभानी होगी। एक ओर जहां अवेयरनेस की आवश्यकता है तो फर्नेस ऑयल का उपयोग करने वालों को समझाने के साथ ही आवश्यकता पड़ने पर सख्ती भी करनी होगी।

एक ओर देश ग्रीन एनर्जी और ईंधन के रूप में एलपीजी से भी एक कदम आगे सीएनजी और पीएनजी की ओर तेजी से आगे बढ़ रहा है, वहीं कुछ लोग निजी लाभ के चक्कर में वायु प्रदूषण फैलाकर सीधे आम आदमी के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाले ईंधन फर्नेस ऑयल और पिटकोक आदि का सरेआम उपयोग कर रहे हैं। ऐसे में सरकार और गैरसरकारी संस्थाओं का दायित्व हो जाता है कि वह आगे आएं और इनके प्रयोग को हतोत्साहित करने के लिए आवश्यक कदम उठाएं। यह समय की मांग और प्रकृति को विकृत होने से बचाने के लिए भी आवश्यक हो जाता है।

लेखक -  डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

 
RELATED POST

Leave a reply
Click to reload image
Click on the image to reload









Advertisement