वर्तमान वैज्ञानिक युग में भी कुछ ऐसी परंपराएं आज भी कायम हैं, जिनके निर्वहन में लोगों को गर्व की अनुभूति होती है। ऐसी ही एक परंपरा है खूंटी के चौधरी मुहल्ला में सैकड़ों वर्षों से हो रही दुर्गा पूजा। यहां की विशेषता है कि माता दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, भगवान गणेश, कार्तिक, महिषासुर सहित अन्य मूर्तियों को निकट गांव बगड़ू के आदिवासी अपने कंधे पर ढोकर पूजा स्थल तक लाते हैं।
जनजाति समुदाय के लोग ही पूजा समापन के बाद विसर्जन के लिए मूर्तियों को कंधे पर ढोकर ही ले जाते हैं। यहां की यह पुरातन परंपरा उन आदिवासी नेताओं के लिए आंख खोलने वाली है, जो कहते हैं आदिवासी हिंदू नहीं हैं और वे मूर्तिपूजक नहीं हैं। इस जनजातीय समाज में नवरात्र के नौ दिनों तक लोग मांस-मछली और शराब का सेवन नहीं करते।
चौधरी मुहल्ला की दुर्गा पूजा खूंटी की सबसे पुरानी पूजा है। यहां दुर्गा पूजा की शुरूआत कब हुई, इसकी सटीक जानकारी तो किसी के पास नहीं है लेकिन यह जिले की सबसे पुरानी पूजा में से एक है। इस संबंध में वरिष्ठ पत्रकार और पूजा का आयोजन करने वाले चौधरी परिवार के सदस्य अरुण चौधरी और अधिवक्ता रास बिहारी चौधरी बताते हैं कि झारखंड में सबसे पहले दुर्गा पूजा की शुरूआत बंगाली समुदाय द्वारा की गई थी। उसी कालखांड में रातू के महाराजा और जरियागढ़ राज परिवार द्वारा दुर्गा पूजा की गई थी।
जरियागढ़ स्टेट के तत्कालीन राजा और खूंटी पट्टी के 12 गांवों के जमींदार बड़ाईक साहब की पहल पर जमींदार सदाशिव चौधरी ने पहली बार खूंटी में दुर्गा पूजा का आयोजन किया था। अरुण चौधरी और रास बिहारी चौधरी ने बताया कि उनके पूर्वजों द्वारा शुरू की गई परंपरागत दुर्गा पूजा आज भी जारी है। यहां पहले बलि प्रथा का प्रचलन था लेकिन अब इसे बंद कर दिया गया। आज भी आदिवासी समुदाय के लोग सभी प्रतिमाओं को कंधे पर ढोकर लाते हैं और माता रानी सहित देवी-देवता विसर्जन के लिए आदिवासियों के कंधे पर ही सवार होकर तालाब तक जाते हैं। इस दौरान दर्जनों गांवों के हजारों लोग पूजा-अर्चना के लिए चौधरी मुहल्ला के पूजा पंडाल में पहुंचते हैं।