कुल्लू दशहरा विश्व विख्यात है। दशहरा उत्सव का महत्व जहां देव समाज से है तो वहीं व्यापारिक दृष्टि से भी इसका महत्व है। प्राचीन संस्कृति को संजोए रखने में राज परिवार का बहुत बड़ा योगदान है। कुल्लू दशहरा का इतिहास करीब करीब साढ़े तीन सौ साल पुराना है। कुल्लू दशहरा की शुरुआत 17 वीं सदी में राजा जगत सिंह के शासन काल में हुई।
दशहरा उत्सव के पीछे एक रोचक कहानी है। बताया जाता है कि मणिकर्ण घाटी के गांव टिप्परी में एक ब्राह्मण दुर्गादत रहा करता था। राजा की गलतफहमी के कारण उस ब्राह्मण ने अपने शरीर के टुकड़े टुकड़े करके आत्महत्या कर ली थी। ब्राह्मण के श्राप से राजा श्रापित हो गया। राजा को असाध्य रोग हो गया था।
इतिहास के अनुसार असाध्य रोग से ग्रसित राजा जगत सिंह को झीड़ी के एक पयोहारी बाबा किशनदास ने सलाह दी कि वह अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से भगवान राम चंद्र, माता सीता और रामभक्त हनुमान की मूर्ति लाकर कुल्लू के मंदिर में स्थापित करके अपना राज-पाट भगवान रघुनाथ को सौंप दे तो ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति मिल जाएगी। इसके बाद राजा जगत सिंह ने श्री
दामोदर दास वर्ष 1651 में श्री रघुनाथ जी और माता सीता की प्रतिमा लेकर गांव मकड़ाह पहुंचे। माना जाता है कि ये मूर्तियां त्रेता युग में भगवान श्रीराम के अश्वमेघ यज्ञ के दौरान बनाई गई थीं। वर्ष 1653 में रघुनाथ जी की प्रतिमा को मणिकर्ण मंदिर में रखा गया और वर्ष 1660 में इसे पूरे विधि-विधान से कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में स्थापित किया गया। राजा ने अपना सारा राज-पाट भगवान रघुनाथ जी के नाम कर दिया तथा स्वयं उनके छड़ीबदार बने।
कुल्लू के 365 देवी-देवताओं ने भी श्री रघुनाथ जी को अपना ईष्ट मान लिया। श्री रघुनाथ जी के सम्मान में ही राजा जगत सिंह ने वर्ष 1660 में कुल्लू में दशहरे की परंपरा आरंभ की। तभी से भगवान श्री रघुनाथ की प्रधानता में कुल्लू के ओर-छोर से पधारे देवी-देवताओं का विराट सम्मेलन यानि दशहरा मेले का आयोजन लगातार चला आ रहा है। समय के अनुसार दशहरा उत्सव का स्वरूप बदला है लेकिन राज परिवार द्वारा उस समय से चली आ रही परंपराओं का बखूबी निर्वहन किया जा रहा है। आज भी जब भगवान रघुनाथ जी को गर्भ गृह से दशहरा उत्सव के लिए अस्थाई शिविर में 7 दिन के लिए लाया जाता है तो राज परिवार भी कड़कती सर्दी में ढालपुर में ही अस्थाई शिविर में रहता है।