मंजूषा कला बिहार के भागलपुर की एक लोक कला है | इसमें जो मानव की आकृतियां बनती हैं, पुरुष और स्त्री के चित्र दर्शाने के लिए चित्रों में जहां एक ओर शिखा और मूंछ के अंकन की परम्परा है, वहीं स्त्री की आकृति के लिए वक्ष पर दो वृतों को बनाया जाता है। वैसे, जो पुरुष आकृति होती है, उसकी गर्दन स्त्री की आकृति से थोड़ी अवश्य मोटी होती है। जहां ये आकृतियां एक ओर कानविहीन होती हैं, वहीं दूसरी ओर इनकी आंखें अनुपात की दृष्टि से बड़ी हैं, जो आकृतियों को भव्यता ही देती हैं। यहां यह विशेष रूप से बताना जरूरी होगा कि मंजूषा पर जो पंचमुखी नाग का अंकन होता है, वह मनसा (पांच बहनों) की ही प्रतीक है, जिसके साथ एक पतली रेखा में नाग का भी अंकन कर दिया जाता है। इन बातों के अतिरिक्त, यह भी लगता है कि मंजूषा पर जो सूर्य और चांद के चित्र उभारे जाते हैं, वे कहीं ना कहीं साम्प्रदायिक सद्भाव के ही चिन्ह हैं। इतिहासकार ज्योतिष चन्द्र शर्मा ने अपने इतिहास ग्रन्थ ‘प्राचीन चम्पा’ में अंगिका भाषा की लोकगाथा बिहुला और कई इतिहास साक्ष्य के आधार पर इस ओर संकेत किया हैं|
आधुनिक समय में इस मंजूषा कला की खोज सर्वप्रथम 1941 में आई.सी.एस. पदाधिकारी डब्ल्यू जी. आर्चर ने की थी और इसे एक राष्ट्रीय धरोहर के रूप में पहचान दी।