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जनजातीय जीवन शैली का अभिन्न अंग है नृत्य-संगीत

Date : 15-Nov-2022

मध्य प्रदेश के इन्द्रधनुषी जनजातीय संसार में जीवन अपनी सहज निश्छलता के साथ आदिम मुस्कान बिखेरता हुआ पहाड़ी झरने की तरह गतिमान है। मध्य प्रदेश सघन वनों से आच्छादित ऐसा प्रदेश है, जहाँ विन्ध्याचल, सतपुड़ा और अन्य पर्वत-श्रेणियों के उन्नत मस्तकों का गौरव-गान करती हवाएँ और उनकी उपत्यकाओं में अपने कल-कल निनाद से आनंदित करती नर्मदा, ताप्ती, तवा, पुनासा, बेतवा, चंबल, दूधी आदि नदियों की वेगवाही रजत-धवल धाराएँ मानो, वसुंधरा के हरे पृष्ठों पर अंकित पारंपरिक गीतों की मधुर पंक्तियाँ।

ढोल, माँदर, गुदुम, टिमकी, डहकी, माटी माँदर, थाली, घंटी, कुंडी, ठिसकी, चुटकुलों की ताल पर जब बाँसुरी, फेफरिया और शहनाई की स्वर-लहरियों के साथ भील, गोण्ड, कोल, कोरकू, बैगा, सहरिया, भारिया आदि जनजातीय युवक-युवतियों की तरह विन्ध्य-शिखर थिरक उठते हैं तो पचमढ़ी की कमर में करधौनी की भाँति लिपट कर सतपुड़ा झूमने लगता है और भेड़ाघाट में अपने धुआँधार हर्ष राग से दिशाओं को आनंदित करता नर्मदा का जल-प्रपात।

जनजातियों का नृत्य-संगीत प्रकृति की इन्हीं लीला-मुद्राओं का तो अनुकरण है। जनजातीय समुदाय प्राय: प्रकृति के सान्निध्य में रहते हैं। इसलिये निसर्ग की लय, ताल और राग-विराग उनके शरीर में रक्त के साथ संचरित होते हैं। वृक्षों का झूमना और कीट-पतंगों का स्वाभाविक नर्तन जनजातियों को नृत्य के लिये प्रेरित करते हैं। हवा की सरसराहट, मेघों का गर्जन, बिजली की कौंध, वर्षा की साँगीतिक टिप-टिप, पक्षियों की लयबद्ध उड़ान ये सब नृत्य-संगीत के उत्प्रेरक तत्व हैं।

नृत्य, मन के उल्लास की अभिव्यक्ति का सहज और प्रभावी माध्यम है। संगीत सुख-दुख यानी राग-विराग को लय और ताल के साथ प्रकट करता है। कहा जा सकता है कि नृत्य और संगीत मनुष्य की सबसे कोमल अनुभूतियों की कलात्मक प्रस्तुति हैं। जनजातियों के देवार्चन के रूप में आस्था की परम अभिव्यक्ति के प्रतीक भी। नृत्य-संगीत जनजातीय जीवन-शैली का अभिन्न अंग है। यह दिनभर के श्रम की थकान को आनंद में संतरित करने का उनका एक नियमित विधान भी है।

जबलपुर, कटनी, मंडला, डिण्डौरी, पुष्पराजगढ़, उमरिया, शहडोल, सीधी, सिवनी, बालाघाट, छिन्दवाड़ा, बैतूल, रायसेन आदि जिलों में गोण्ड जनजाति समूह में करमा, सैला, भड़ौनी, बिरहा, कहरवा, ददरिया, सुआ आदि नृत्य-शैलियाँ प्रचलित हैं। गोण्ड समुदाय के 'सजनी' गीत-नृत्य की भाव-मुद्राएँ चमत्कृत करती हैं। इनका दीवाली नृत्य भी अनूठा होता है। माँदर, टिमकी, गुदुम, नगाड़ा, ठिसकी, चुटकी, झांझ, मंजीरा, खड़ताल, सींगबाजा, बाँसुरी, अलगोझा, शहनाई, तमूरा, बाना, चिकारा, किंदरी आदि इस समुदाय के प्रिय वाद्य हैं।

बैगा माटी माँदर और नगाड़े के साथ करमा, झरपट और ढोल के साथ दशेहरा नृत्य करते हैं। विवाह के अवसर पर ये बिलमा नृत्य कराते हैं। बारात के स्वागत में किया जाने वाला परघौनी नृत्य आकर्षक होता है। छेरता नृत्य नाटिका में मुखौटों का अनूठा प्रयोग होता है। इनकी नृत्यभूषा और आभूषण भी विशेष होते हैं।

भील जनजाति समूह के लोग नृत्य को 'सोलो' या 'नास' कहते हैं। लाहरी, पाली, गसोलो, आमोसामो, सलावणी, दौड़ावणी, घोड़ी, भगोरिया आदि इस जनजाति समूह की बहु प्रचलित नृत्य-शैलियाँ हैं। भील नृत्य के साथ प्राय: बड़ा ढोल, ताशा, थाली, घंटी, ढाक, फेफरिया, पावली (बाँसुरी) आदि वाद्यों का प्रयोग करते हैं।

कोरकू जनजाति के नृत्य प्राय: मिथकों पर आधारित और पर्व-प्रसंगों से जुड़े होते हैं। चैत्र में देव दशेहरा, चाचरी और गोगोल्या, वैशाख में थापटी, ज्येष्ठ में ढाँढल और डोडबली, श्रावण में डंडा नाच, क्वांर में होरोरया और चिल्लुड़ी, कार्तिक की पड़वा पर ठाट्या तथा वैवाहिक अवसरों पर स्त्रियों का गादली नृत्य प्रचलित है। यह जनजाति नृत्य के साथ ढोल, ढोलक, मृदंग, टिमकी, डफ, अलगोझा, बाँसुरी, पवई, भूगडू, चिटकोरा, झांझ आदि वाद्य बजाते हैं।

भारिया जनजाति के लोगों को भड़म, सैतम और करम सैला आदि नृत्य प्रिय हैं। ये नृत्य के साथ ढोल, ढोलक, टिमकी, झांझ और बाँसुरी बजाते हैं। युवतियाँ भी मंजीरा और चिटकुला बजाती हैं।

सहरिया जनजाति में स्वांग अधिक लोकप्रिय है। इसमें पुरुष ही स्त्री वेश धारण करते हैं। ये मस्त होकर फाग नृत्य का आनंद लेते हैं। तेजाजी और रामदेवरा प्रसंगों पर आधारित नृत्य विशेष रूप से करते हैं। ये चंग और ताशा वाद्यों का प्रयोग अधिक करते हैं। कोल, कोंदर और अन्य जनजातीय लोग भी विभिन्न अवसरों पर नृत्य-संगीत को विशेष महत्व देते हैं।

 

लक्ष्मीनारायण पयोधि

(लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार और जनजातीय संस्कृति के अध्येता हैं।)

 
 
 
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