महाकुंभ नगर, 01 फरवरी– लखनऊ से करीब 300 किलोमीटर दूर गोरखपुर के बांसगांव तहसील स्थित गांव सोनइचा से रमेश का फोन आता है। वह खेती-बाड़ी के लिए खाद-पानी और मजदूरी का जिक्र करते हैं, फिर संकोच से कहते हैं—"प्रयागराज जाना है, महाकुंभ नहाने। खाद और मजदूरी के अलावा हमारे लिए भी कुछ भेज दीजिए।" जब पूछा कि कितना चाहिए, तो जवाब मिलता है—"हजार में काम चल जाएगा।"
रमेश सिर्फ एक प्रतीक हैं, ऐसे लाखों लोग हैं जिनके पास न ट्रेन का रिजर्वेशन है, न किसी वाहन की बुकिंग। यहां तक कि महाकुंभ में ठहरने का भी कोई निश्चित ठिकाना नहीं। इन्हें खाने की भी कोई चिंता नहीं होती, क्योंकि जरूरत भर का चना-चबेना साथ रखते हैं। पैसे भी सीमित होते हैं, लेकिन इनके पास जो सबसे बड़ी पूंजी है, वह है—गंगा मैया के प्रति श्रद्धा और बाबा की व्यवस्था पर अटूट विश्वास।
श्रद्धा, जुनून और महाकुंभ का असली स्वरूप
इन लोगों के पास दुनिया के ऐशो-आराम भले न हों, लेकिन इनके पास एक चीज़ है—श्रद्धा और इसे पूरा करने का जुनून। महाकुंभ जाना ही है, क्योंकि गंगा मैया बुला रही हैं। बुलाया है तो बाकी इंतजाम भी वही करेंगी, और अच्छा करेंगी। महाकुंभ के असली पात्र रमेश जैसे लाखों लोग हैं, जिनमें से करीब 10 लाख वे कल्पवासी हैं जो रोज तड़के संगम या गंगा में पुण्य की डुबकी लगाकर दिनभर जप और ध्यान में लीन रहते हैं। रात को किसी साधु-संत के शिविर या अखाड़े में सत्संग का अमृत रसपान करते हैं।
इन अखाड़ों और शिविरों में धर्म, अध्यात्म और योग पर निरंतर प्रवचन होते हैं, मंत्रोच्चार की मधुर ध्वनि से ऊर्जा मिलती है। साधु-संतों के विचारों में खो जाने वाले श्रद्धालु ही इस अनादि महाकुंभ के असली तीर्थयात्री हैं।
रामायण नाई की दरियादिली और व्यवस्था से संतुष्टि
महाकुंभ की असली कहानी उन अनजान नायकों की है, जो बिना किसी दिखावे के मानवता का परिचय देते हैं। सेक्टर 4 से संगम नोज जाने वाले रास्ते पर नाई की एक दुकान है, जहां एक गरीब लड़का बाल कटवाने आया। उसके बाल उलझे हुए थे और सिर गंदगी से भरा था। लेकिन उसके पास पैसे नहीं थे।
नाई रामायण ने बिना हिचकिचाहट कहा, "पहले जाओ, बाल धोकर आओ, फिर मुफ्त में काट दूंगा। तुम्हारे बालों में मेरी कंघी और कैंची नहीं चल पाएगी।"
जब पूछा गया कि बिना पैसे के क्यों सेवा कर रहे हैं, तो जवाब आया, "गंगा मैया बिना मांगे भर-भर कर दे रही हैं। अभी एक बच्चे का मुंडन किया, श्रद्धा से 500 रुपये मिले।"
उन्होंने महाकुंभ की व्यवस्था की भी तारीफ की—"योगी जी की व्यवस्था नंबर वन है। कोई परेशान नहीं करता, न किसी को पैसा देना पड़ता है।"
मानवता का संदेश देने वाला एक अनजान युवा
बस में सफर कर रही एक बुजुर्ग महिला की बुक बस छूट गई थी। उनके पास किराए के लिए पैसे कम थे। महिला और कंडक्टर के बीच बातचीत चल रही थी। कंडक्टर भी संवेदनशील थी, सोच रही थी कि अगर लखनऊ तक का टिकट काट दिया, तो हरदोई तक जाने के लिए महिला के पास पैसे नहीं बचेंगे।
तभी एक सज्जन ने आगे बढ़कर कहा, "माता जी, चिंता मत कीजिए, मैं आपका किराया दे देता हूं। आप मेरे साथ हरदोई तक चलिए, कोई दिक्कत नहीं होगी।"
महाकुंभ की असली तस्वीर
महाकुंभ केवल विशाल भीड़, बड़े आयोजन या सोशल मीडिया पर वायरल होने वाली तस्वीरों तक सीमित नहीं है। असली महाकुंभ वे श्रद्धालु हैं, जिनकी श्रद्धा अटूट है, वे लोग हैं जो बिना दिखावे के दूसरों की मदद करते हैं। रमेश, रामायण, संवेदनशील महिला कंडक्टर, और वह अनजान युवा—ये सभी महाकुंभ की आत्मा हैं।
इन्हीं सच्चे श्रद्धालुओं, सिद्ध महात्माओं और ज्ञान की गंगा बहाने वाले विद्वानों की वजह से प्रयागराज का यह महाकुंभ अनादि काल से जाना जाता है। और इन सभी को इस अद्भुत आयोजन से कोई शिकायत नहीं है, बल्कि वे इसके सफल आयोजन की सराहना कर रहे हैं। यही महाकुंभ की असली खूबसूरती है।
