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बुन्देलखंड में सावन मास में झूला झूलने की परम्परा अब होने लगी विलुप्त

Date : 10-Jul-2023

 बुन्देलखंड क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों में सावन के झूला झूलने की परम्परा अब विलुप्त होने लगी है। मास के पांच दिन बीतने के बाद भी गांवों में पेड़ों की डालियां सावन के झूले से सूनी हो गई है। आधुनिकता के दौर में गांव की चौपालों में सावन मास के गाने भी नहीं सुनाई देते हैं।

सावन मास का महीना जहां भगवान भोले नाथ की उपासना के लिए उत्तम माना जाता है वहीं बालक और बालिकाओं के आमोद प्रमोद के नाम पर भी इस मास की धूम मचती है। ढाई दशक पहले सावन से जुड़ी तमाम परम्पराएं ग्रामीण इलाकों में प्रचलित थी लेकिन आधुनिकता के दौर में अब यह परम्पराएं खत्म होती जा रही है। हमीरपुर जिले के बुजुर्ग डीसी मिश्रा, सतीश तिवारी, बाबूराम प्रकाश त्रिपाठी ने बताया कि सावन मास में चारों ओर कभी उमंग और उल्लास का माहौल रहता था। बड़े लोग भगवान भोले नाथ की उपासना, कीर्तन, भजन के जरिए भक्ति में लीन रहते थे। वहीं बालिकाएं घरों के बाहर सामूहिक रूप से गुट्टा खेलती थी।

महिलाएं मेंहदी रचाकर सावन मास के गीत गाती थी। लेकिन अब यह कहीं नजर नहीं आते है। बुन्देलखंड क्षेत्र के किसी भी गांव में जाने पर सावन मास के झूले और इससे जुड़े खेल और तमाशे देखने को मिलते थे लेकिन अब यह विलुप्त होते जा रहे है। कुंडौरा गांव की बुजुर्ग देवरती कुशवाहा ने बताया कि पहले शादी के बाद नवयुवतियां सावन में अपने मायके आती थी और अचरी, सावनी गीतों के स्वरों के बीच झूला झूलती थी मगर अब यह सब क्रियाकलाप विलुप्त हो रहे है।

सावन मास से जुड़ी तमाम परम्पराएं भी अब तोड़ रही दम

कलौलीजार गांव के पूर्व सरपंच बाबूराम प्रकाश त्रिपाठी समेत तमाम बुजुर्गों ने बताया कि सावन मास शुरू होते ही गांवों की चौपालों में सावन के गीत सुनाई देते थे। बच्चे भौंरा नचाते थे। दौड़ कबड्डी, पकड़ कबड्डी, सर्रा, सिलोर समेत तमाम खेल भी खेलते थे। जगह-जगह पेड़ों में झूले पड़े रहते थे जिसमें बच्चों के साथ महिलाएं सावन के गीत गाती हुई झूला झूलती थी। और तो और चौपालों में देर रात तक महिलाएं और पुरुषों के समूह उच्च स्वर में गाए जाने वाले सावन गीत, प्रेम एकता की सुगंध वातावरण में बिखेरते थे। लेकिन अब गांव की चौपालों में सावन मास की धूम नहीं दिखाई देती।

मोबाइल फोन की धूम में गांवों की चौपालें भी अब हो गई सूनी

पंडित दिनेश दुबे व साहित्यकार डाँ.भवानीदीन प्रजापति ने बताया कि शहर से लेकर गांवों तक मोबाइल फोन की धूम हर उम्र के लोगों में मची है। जिन बच्चों को घर के बाहर पुरानी परम्पराओं के खेल खेलने चाहिए वह आज मोबाइल में लगे रहते है। महिलाओं ने भी सावन मास की परम्पराओं से दूरी बनाई है। बताया कि मन भावन सावन आकर कब निकल जाता है पता नहीं चलता। कुछ स्थानों पर बच्चों के झूले दिख जाते है। लेकिन सावन माह की अन्य परम्पराओं के आमोद प्रमोद वाले कार्यक्रम अब नहीं नजर आते है। बुजुर्गों का कहना है कि शहर और कस्बों में शाम होते ही सन्नाटा पसरने लगता है। वहीं गांव की चौपालें भी सावन में सूनी है।

 
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