यद्यपि दंतेवाड़ा जिला आंध्रप्रदेश तथा ओडिशा से घिरा हुआ है। इसके बावजूद जिले ने अपनी सांस्कृतिक पहचान अक्षुण्ण रखी है। पड़ोसी राज्यों से प्रभावित होने के बावजूद खानपान, पहनावे, आभूषण, लोक नृत्य, लोक गीत में दंतेवाड़ा की जनजातियों की सांस्कृतिक पहचान सुरक्षित है।
दंतेवाड़ा में बहुत से जनजातीय समूह हैं। इनमें मुख्य रूप से तीन जनजातीय समूह मुड़िया-दंडामी माड़िया या गोंड, दोरला तथा हल्बा सर्वाधिक हैं।
खानपान- दंतेवाड़ा की जनजातियाँ प्रधानतः मांसाहारी हैं। वे पेज( उबला चावल और पानी का मिश्रण), सल्फी( सल्फी वृक्ष का रस), लांदा( पानी, माड़, चावल से बना पेय पदार्थ), कोसरा( चावल जैसा खाद्य पदार्थ), चावल और मड़िया खाना पसंद करते हैं।
वस्त्र एवं आभूषण- जनजातीय लोग श्रृंगार को खूब महत्व देते हैं। जनजातीय युवतियाँ खोसा, खिनवा( कान में) , फुल्ली( नाक में) पहनना पसंद करती हैं। वे गले में कारिपोट अर्थात काले मोतियों की माला, छपसारी ( गले का भारी हार), मोहर की माला पहनना पसंद करती हैं। इसके अलावा वे कड़े और चूड़ियाँ भी पहनना पसंद करती हैं। गोदना कराना उन्हें विशेष प्रिय है।
कपड़े
विश्वास- भारत के दूसरे जनजातीय समूहों की तरह ही दंतेवाड़ा की जनजातियाँ भी देवी-देवताओं में विश्वास करती हैं। वे झाड़-फूक, भूत प्रेत और जादू टोना में भी भरोसा करते हैं। सिरहा-गुनिया पर उन्हें विशेष भरोसा होता है। सिरहा ऐसा व्यक्ति होता है जो अपने शरीर में पवित्र आत्मा को आमंत्रित करता है और इससे पीड़ित का इलाज करने का दावा करता है। गुनिया सिरहा का सहयोगी होता है और तंत्र-मंत्र के माध्यम से पीडि़त को ठीक करने का दावा करता है। पंजिया भविष्य वक्ता होता है तथा पेरमा गाँव का वरिष्ठ होता है जिसकी बात गाँव वाले मानते हैं और इनके मार्गदर्शन में पूजा पद्धति एवं विभिन्न अनुष्ठानों का पालन करते हैं।
दंतेवाड़ा की जनजातियाँ साल भर उत्सव मनाती हैं एवं मेलों में भाग लेती हैं। इनके अपने जनजातीय त्योहार होते हैं जिन्हें पंडुम कहा जाता है और जो विभिन्न अवसरों पर मनाये जाते हैं। इसके अलावा हिंदुओं के त्योहार जैसे दीपावली, होली, दशहरा, गोंचा (रथयात्रा) भी मनाते हैं।