रामकृष्ण परमहंस के पास एक भक्त आकर बोला, “भगवान्! आपकी चादर फटी हुई है, आज्ञा हो तो नयी ला दूँ |
“नहीं ! अभी वह कुछ दिन और काम दे सकती है”, परमहंस देव बोले |
“इस मंदिर के प्रबंधक कैसे हैं, जो आपकी आवश्यकताओं की ओर ध्यान ही नहीं देते!” – भक्त पुन: बोला |
“भाई ! तुम मेरी चिंता मत करो | वे मेरी पूरी – पूरी देखभाल करते हैं |
“अच्छा महात्मन ! यदि आज्ञा हो तो दस सहस्त्र रुपया आपके नाम जमा करा दूँ |
इसका सूद चालीस रूपये मासिक होगा | इस धन से आपका भोजन- कपड़ा आदि चल जायेगा |”
“नहीं भाई ! धन प्रभु- प्राप्ति में मार्ग में कांटा है | मुझे इस लोभ में मत फसाओं |”
“अच्छा भगवन ! यह धन मैं आपके किसी संबंधी के नाम जमा कर देता हूँ | अब तो आपके कोई आपत्ति न होगी ?
“भाई इस चक्कर में मुझे मत डालो | ‘यह धन मेरा है’- ऐसा अहंकार मुझे माँ से दूर कर देगा |