दुधधारी मंदिर, रायपुर में सबसे पुराना मंदिर है। मंदिर के प्राचीन रहस्यवाद भगवान राम भक्तों को आकर्षित करते हैं। वैष्णव धर्म से संबंधित, दुधधारी मंदिर में रामायण काल की मूल मूर्तियां हैं। रामायण काल की कलाकृतियां बहुत ही दुर्लभ हैं, जो कि इस मंदिर को अपनी तरह विशेष बनाता है।
राजधानी के 466 साल पुराने दूधाधारी मठ के संस्थापक बलभद्र दास महंत हनुमान भक्त थे |मंदिर परिसर में महंत बलभद्र दास की समाधि है। इसी जगह सभी बड़े फैसले लेने की परंपरा है। कहा जाता है कि बलभद्र दास एक दिन सुबह अचानक अंतरध्यान हो गए। उनके शिष्यों ने उन्हें सुबह टहलते हुए देखा था। जब वे कहीं नहीं मिले तो मान लिया गया कि उन्होंने समाधि ले ली है। इसके बाद उनकी समाधि स्थल का निर्माण करवाया गया और आज भी वहीं सभी फैसले लिए जाते हैं।
दूधाधारी मठ को लेकर एक और कहानी प्रचलित है। मठ के संस्थापक बलभद्र दास महंत हनुमान जी के बड़े भक्त थे। एक पत्थर के टुकड़े को वे हनुमान जी मानकर श्रद्धा भाव से पूजा करने लगे। वे अपनी गाय सुरही के दूध से उस पत्थर को नहलाते और फिर उसी दूध का सेवन करते थे। इस तरह उन्होंने अन्न का त्याग कर दिया और जीवन पर्यन्त दूध का सेवन किया। इस तरह बलभद्र महंत दूध आहारी हो गए। बाद में जगह दूधाधारी मठ नाम से जाना गया।
राजस्थान के झींथरा नामक स्थल के संत गरीबदास ने यहां अपना डेरा जमाया था, उन्हीं की परंपरा के संत बलभद्र दास हुए। बलभद्र दास का जन्म राजस्थान के जोधपुर जिले के आनंदपुर में हुआ था लेकिन उनकी कार्यस्थली छत्तीसगढ़ का रायपुर था। वे भ्रमण करते हुए पहले महाराष्ट्र और फिर छत्तीसगढ़ आ गए। भंडारा जिले के पावनी में महंत गरीबदास द्वारा निर्मित श्रीराम जानकी मंदिर में वे काफी दिनों तक रहे। यहीं उन्होंने गरीबदास को अपना गुरु बनाया और बालमुकुंद से बलभद्र दास हो गए। इसके बाद वे रायपुर आ गए।
सन् 1610 में दूधाधारी मठ का निर्माण राजा रघुराव भोसले ने बलभद्र दास के लिए करवाया था। मठ का अपना प्राचीन इतिहास रहा है। इस मठ में कई देवी-देवताओं के मंदिर हैं। इनमें बालाजी मंदिर, संकट मोचन हनुमान मंदिर, रामपंचायतन और वीर हनुमान मंदिर प्रमुख हैं। वैष्णव संप्रदाय से संबंधित इस मंदिर में रामायण कालीन दृश्यों का शिल्पांकन आकर्षक तरीके से किया गया है। मंदिर में मराठाकालीन पेंटिंग आज भी मौजूद हैं। पुरातत्व विशेषज्ञों के अनुसार मठ के भवन का वास्तु-शास्त्र उड़ीसा शैली से प्रभावित है तथा यहां का अलंकरण मराठा शैली के समान है।
यहाँ एक छात्रावास भी है, जहां विद्यार्थियों को रहने और खाने की सुविधा निःशुल्क दी जाती है। मठ में सभी को मिलाकर 100 के करीब लोग रहते है। मठ की एक और खासियत यह है कि यहां अनाज भंडारण के लिये बहुत बड़ी जगह सुरक्षित है और दो रसोईघर है, एक 'सीता' तो एक 'अनसुइया'। सीता में सुबह का खाना बनता है तो वहीं अनसुइया में शाम का। यहां आज भी पुराने बड़े-बड़े चूल्हों में खाना पकाया जाता है। अब इतने लोगों को खाना रोज़ बनता है, तो जरूर खाने के समान भी बहुत होंगे और उनको रखने के लिए अनाजघर भी चाहिए होगा। जिसके लिये मठ में अनाज भंडारण के लिये बहुत बड़ी जगह सुरक्षित है। जहां आज भी अनाज कूटने से लेकर पीसने तक की सारी पुरानी तकनीकें मौजूद हैं।