शक्ति संधान के साथ अग्रसर होता भारतीय गणतंत्र | The Voice TV

Quote :

तुम खुद अपने भाग्य के निर्माता हो - स्वामी विवेकानंद

Editor's Choice

शक्ति संधान के साथ अग्रसर होता भारतीय गणतंत्र

Date : 26-Jan-2025


भारत के प्रसंग में सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओँ पर विमर्श औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक काल के अनुभवों से सीधे सीधे जुड़ता है। आधुनिक पश्चिम से उपजा और औपनिवेशिक परिवेश में पुष्पित और पल्लवित हुआ नज़रिया भारत और भारतीयता के बारे में स्वयं भारतीय विचारों को प्रश्नों के घेरे में खड़ा कर देता है। पर सत्य यह भी है कि देश, राज्य, राष्ट्र और गणतंत्र जैसी विचार-कोटियाँ निहित निजी स्वार्थ से ऊपर उठ कर समवेत रूप से राष्ट्रीय स्तर पर आपसी सहमति की अपेक्षा करती हैं। इतिहास गवाह है कि देश और जनता के हित के विषय में असहमति हिंसा और आक्रामकता को जन्म देती है। पड़ोस में और अन्यत्र कई देशों में हो रही ताजा घटनाएँ इस तथ्य को बखूबी दिखा रही हैं। चुनी हुई सरकार को सत्ता से बेदखल करना, रक्तपात, युद्ध, नरसंहार और लूटपाट की घटनाएँ शर्मनाक ढंग से बढ़ रही हैं। सभ्यता के बढ़ते कदम के साथ बर्बरता, छल-कपट और बेईमानी के नए-नए रूप देखने को मिल रहे हैं। आज एआई और परमाणु तकनीक़ें इसे और भी ख़तरनाक बनाती जा रही हैं।

इस उथल-पुथल भरे परिवेश में भारत जिस तरह विश्व पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा है वह विश्व के लिए आश्चर्य और देशवासियों के लिए गौरव का विषय है। यह भी याद रखना ज़रूरी है कि भारत सहस्रों वर्षों से मानव सभ्यता के अविरल प्रवाह का साक्षी रहा है। विपरीत परिस्थितियों में भी अनेक शास्त्रों और विद्याओं की उपस्थिति भारतीय मानस की तीक्ष्ण, सुदीर्घ और समृद्ध सत्ता का प्रमाण देती है। सभ्यतागत स्मृति का प्रामाणिक दस्तावेज उपस्थित करती यह विपुल ज्ञानराशि बहुत कुछ कहती है। यह भी बड़ा रोचक तथ्य है कि 'भारत' का वर्णन अक्सर इसकी प्राकृतिक सुंदरता और इसके जीवंत भौतिक रूप के संदर्भ में किया जाता रहा है। कालिदास हिमालय और समुद्र से जोड़ कर भारत का आकार रचते हैं। यहां की नदियां, झीलें, सरोवर और पहाड़ सभी पवित्र तीर्थ माने जाते हैं और ये लोक मानस में इसी रूप में प्रतिष्ठित हैं। वेद विभिन्न धर्मों को मानने वाले और विभिन्न भाषाएं बोलने वाले लोगों के रूप में यहाँ के निवासियों का स्मरण करते हैं। यह वत्सला वसुंधरा उन सबका पालन-पोषण वैसे ही करती है जैसे एक गाय अपने बछड़ों का पालन-पोषण करती है। ऐसे जीवंत 'भारत' की संकल्पना लोक मानस में अभी भी प्राणवान है।

आज भारत एक स्वतंत्र, संप्रभु गणराज्य के रूप में प्रतिष्ठित है। यद्यपि ऐतिहासिक तौर पर गणराज्य की संस्था से भारत पहले से परिचित था, लेकिन देश का वर्तमान स्वरूप आधुनिक है। 1930 में 26 जनवरी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ 'पूर्ण स्वराज्य' की मांग की और लंबे संघर्ष के बाद महात्मा गांधी के नेतृत्व में अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया गया। आखिरकार अगस्त 1947 में देश ब्रिटिश राज से आजाद हुआ और 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ ताकि भारतीय जन भारत के लिए भारत के मन से सरकार चलाएँ। संविधान निर्माण समिति के अध्यक्ष बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान का अंतिम प्रारूप सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद को सौंपा था और तब से लेकर अब तक इस संविधान में शताधिक संशोधन हो चुके हैं। यहाँ पर यह स्मरणीय है कि भारत में ब्रिटिश शासन यूरोपीय उपनिवेशवाद द्वारा अपना वैश्विक वर्चस्व स्थापित करने की बड़ी परियोजना का हिस्सा था। औपनिवेशिक शासन के बढ़ते प्रभुत्व के कारण सभी उपनिवेश धर्म, राजनीति, शिक्षा, अर्थव्यवस्था और कानून आदि की दृष्टि से एक राज-छत्र के अधीन हो गए थे । भारत में ईसाई यूरोपीय लोगों का आगमन व्यापार की आड़ में धोखे से शुरू हुआ था और फिर शासन की बागडोर सँभाल ली और धर्म, शिक्षा, पर्यावरण, स्वास्थ्य और विकास ही नहीं हमारे आत्म-बोध को भी नकारात्मक ढंग से प्रभावित किया। औपनिवेशिक विरासत को ढोने का असर अपनी संस्कृति के बारे में लज्जा, पिछड़ेपन या हीनता के अहसास के रूप में प्रतिफलित हुआ।

स्वतंत्र भारत में भी औपनिवेशिक दृष्टि 'सेकुलर' और 'आधुनिक' और ‘वैज्ञानिक’ के अवतार में अपनाई जाती रही। यह आत्म की पराधीनता अज्ञानता के कारण हुई या जानबूझकर इतिहास और परंपरा से मुंह मोड़ने के कारण, यह आज भी ज्वलंत प्रश्न है। यह प्रवाद भी प्रचलित है कि भारत देश को एक राष्ट्र के रूप में बांधने का उपकार अंग्रेजों ने किया था। यह विचार तो किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं है, परंतु सच यह भी है कि वह औपनिवेशिक स्रोत से सीखने और उनके पीछे चलते हुए उन जैसा ही बनने की तीव्र लालसा पैदा हुई । परनिर्भरता का जोखिम उठाते हुए भी हम स्वदेशी विचारों को हाशिए पर करने और यूरोपीय दृष्टिकोण को अपनाते रहने का काम जारी रहा। इस सबनके सम्मिलित प्रभाव में देशवासियों के समृद्ध और प्रासंगिक सांस्कृतिक अनुभव को प्रश्नांकित कर उखाड़ फेंकना शुरू किया ।

परम्परागत रूप से भारत निश्चित रूप से विविधता और विशालता के संदर्भ में सभ्यता की अवधारणा को व्यक्त करता है और सारे विश्व को एक नीड़ की तरह देखता है । सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता के बावजूद देशवासियों में भारतीयता का भाव विभिन्न समुदायों के एक अनूठे समाहार के रूप में रही है जो हर किसी को अपनी ख़ास पहचान बनाए रखने का भी अवसर देता है जिसमें मनुष्य और प्रकृति सभी शामिल हैं। भारत की स्वदेशी सोच में जीवन में विश्वास, सामुदायिक जीवन, ज्ञान-विस्तार और आर्थिक क्रिया-कलाप सभी प्रकृति के इर्द-गिर्द स्थापित रहे हैं। जीवन रस को पुष्ट करने वाला प्रकृतिकेंद्रित विकास हमारे स्वभाव में था। प्रकृति के साथ रहना न कि उस पर हावी होना भारतीय मनीषा का प्रदेय था। इसमें पशु, पेड़ और धरती, सबका यथोचित सम्मान था। वास्तव में, संपूर्ण विश्व में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध और परस्परपूरकता जीवन का मंत्र था।

उपनिवेशीकरण में न केवल दोहन हुआ बल्कि स्वदेशी समाज, विचार और व्यवस्था का हाशियाकरण हुआ। लोग अपनी ही संस्कृति और स्वदेशी पहचान से घृणा-सी करने लगे। यह प्रवृत्ति सृजनात्मकता और मौलिकता की जगह आत्मविस्मृति और फिर असंगत नए को अपनाने पर ज़ोर देती रही। दबाव इतना भारी था कि स्वतंत्र भारत में भी भारतीय विचारकों के योगदान को प्रायः नजरअंदाज किया गया और महात्मा गांधी, गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर और श्री अरविंद जैसे राष्ट्रवादी देशभक्त महापुरुषों के दृष्टिकोण को लगभग नकार दिया गया। पश्चिमी दुनिया के अनुकूल एक नए भारत का निर्माण जिसमें वैज्ञानिक सोच और आधुनिकता प्रबल हो हमारा लक्ष्य बन गया। कुछ सतही बदलावों के साथ अंग्रेजों की लीक पर चलना जारी रहा। विदेशी मानकों और प्रथाओं को आँख मूँद कर अपनाने को प्रमुखता मिली। पश्चिम जैसा दिखना और होना आधुनिक होने का पर्याय बन गया। आज जब अधिकांश राजनीतिक दल वोट बटोरने के लिए जनता को मुफ़्तख़ोरी का पाठ पढ़ा रहे हैं हमें देश की शक्ति, सामर्थ्य और सीमाओं पर ध्यान देना होगा।

पिछले सात दशकों में भारतीय गणतंत्र ने कई पड़ाव पार किए हैं और कई परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुआ है । वैश्विक परिदृश्य को देखें तो यह बड़ी उपलब्धि कही जाएगी कि आम चुनाव समय पर हुए हैं तथा एक बार आपातकाल लगने के अलावा लोकतंत्र की व्यवस्थाएं अक्षुण्ण रही हैं। देश में राजनीतिक चेतना का भी विस्तार हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप समाज के अनेक वर्गों का प्रतिनिधित्व होने लगा है, किन्तु स्वार्थ तथा क्षेत्रवाद के कारण जैसे-तैसे सत्ता में बने रहने की जुगत ढूँढना ही प्रमुख कार्य हो गया है। वैचारिक प्रतिबद्धता के अभाव में राजनैतिक आचरण में अप्रत्याशित गिरावट दर्ज हो रही है। विगत वर्षों में जहां गरीबों की स्थिति सुधरी है, उद्योग को बढ़ावा मिला है, बुनियादी ढांचे को मजबूत करने और कृषि में सुधार आदि की दिशा में कई ज़रूरी कदम उठाए गए हैं वहीं शिक्षा, रोजगार, न्याय-व्यवस्था और स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजीकरण की मार और राजनैतिक हस्तक्षेप से संकट गहरा रहे हैं । बढ़ती जनसंख्या के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे का निर्माण और संसाधन उपलब्ध कराना दिनों-दिन मुश्किल हो रहा है।

भारत की सभ्यतागत आत्मचेतना है जिसमें वह मातृभूमि है। इस भाव में एकता एवं देशभक्ति के तत्व स्वाभाविक रूप से अंतर्निहित हैं । पार्थिव चेतना की शक्ति मातृभूमि के प्रति श्रद्धा से प्रकट होती है। उपनिवेशवादी सोच का प्रतिकार करते हुए ज्ञान के सृजन को पश्चिम के अतिरिक्त बोझ एवं अनावश्यक हस्तक्षेप से मुक्त करना होगा। हम भारत के लोग एक जीवंत और जीवंत सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं। देश प्रगति पथ पर है पर इसकी इस लय को बरकरार रखने के लिए एक श्रम को आदर देनी वाली संस्कृति विकसित करनी होगी। गणतंत्र के उत्तम स्वास्थ्य के लिए लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों को सुदृढ़ करना होगा।

भारत का निर्माण सम्पूर्ण देश के लोगों द्वारा एक समग्र सत्ता के बोध से जुड़ा था और देश के स्वाधीनता संग्राम में बलिदान दिया था। स्वाधीनता संग्राम में बलिदान देने वाले नायक पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, सभी दिशाओं से आए थे। वे हर धर्म और जाति के थे और देश के प्रति उनका लगाव उन्हें बांधे हुए था। उनके सपनों का भारत एक समग्र रचना है। यह जरूरी है कि हम उनका भरोसा न तोड़ें । औपनिवेशिक काल में बनी छवि से आगे बढ़कर अपने सामूहिक स्वरूप को पहचानने की जरूरत है। स्वायत्त राष्ट्र की चेतना वाला भारत ही सर्वश्रेष्ठ भारत होगा। गांधीजी ने चेतावनी दी थी कि भारत का रास्ता पश्चिमी दुनिया से नकल नहीं किया जाना चाहिए और ऐसा करने पर भारत की आत्मा खो जाएगी, जिसकी क्षति से वह बच नहीं पाएगा। वह अपने और दुनिया के हित में इसका विरोध करना चाहते थे। लेकिन उनका यह भी कहना है कि जड़ों से जुड़े रहने का मतलब कैद होना नहीं है। रूढ़िबद्धता से परे अपनी पहचान बनानी होगी।


लेखक -  गिरीश्वर मिश्र

 
RELATED POST

Leave a reply
Click to reload image
Click on the image to reload










Advertisement