"हिन्दुत्व के ध्रुव तारा :स्वामी दयानंद सरस्वती" | The Voice TV

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"हिन्दुत्व के ध्रुव तारा :स्वामी दयानंद सरस्वती"

Date : 22-Feb-2025

मतांतरण के विरुद्ध शुद्धि आंदोलन के प्रणेता थे स्वामी दयानंद सरस्वती" 

 
महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती, कृण्वन्तो विश्वमार्यम के आलोक में "वेदों की ओर लौटो"के प्रबल पक्षधर थे और यही उनका मूलमंत्र था। वे आधुनिक भारत के महान् चिंतक, महान् धर्मज्ञ, महान् समाज सुधारक वेदों के प्रचार एवं आर्यावर्त को स्वतंत्रता दिलाने के लिए "आर्य समाज" के संस्थापक, सत्यार्थ प्रकाश पुस्तक के रचयिता एवं स्वराज्य के प्रथम संदेशवाहक थे। 
इन प्रचारकों ने षडयंत्रपूर्वक प्रकारांतर से सामाजिक कुरीतियों को हिंदू धर्म में सम्मिलित कर कठोर प्रहार करने आरंभ किए।  मुख्यतः हिंदू धर्म पर आघात किया जिससे हिंदू ईसाई धर्म स्वीकार करने लगे। इसलिए 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सामाजिक व धार्मिक आंदोलन हुए। स्वामी दयानंद सरस्वती अपने गुरु मथुरा के स्वामी विरजानंद से वेदों का ज्ञान प्राप्त कर हिंदू धर्म सभ्यता और भाषा के प्रचार का कार्य आरंभ किया। 
एतदर्थ सन् 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज ने हिंदू धर्म और समाज के सुधार हेतु महत्वपूर्ण कार्य किए। स्वामी दयानंद ने आर्य समाज के निर्माण में समानता की जिस भावना को सम्मिलित किया वह विभिन्न समाजों के संगठन और उनके प्रचार कार्य में सहायक सिद्ध हुई। आर्य समाज की सफलता का एक अन्य मुख्य आधार आर्य समाज की धार्मिक दृढ़ता थी। 
 लेकिन यही हिंदू धर्म की सबसे बड़ी दुर्बलता भी रही है जबकि इस्लाम और ईसाई धर्म क्रमशः कुरान और बाइबिल को ही एकमात्र सत्य धार्मिक ग्रंथ और मुहम्मद या ईसा मसीह को ही ईश्वर का एकमात्र दूत मानते हैं, तथा उसी धर्म का पालन करना सत्य मार्ग और और स्वर्ग जाने का मार्ग बताते हैं, जबकि हिंदू धर्म सभी मार्गों को उचित मानता है और सभी महान धार्मिक व्यक्तियों को ईश्वर का दूत स्वीकार करता है। इसी कारण हिंदू धर्म की उदारता उसकी निर्बलता का कारण बनी और इसी कारण वह कट्टर इस्लाम और ईसाई धर्म का मुकाबला करने में दुर्बल रही। स्वामी दयानंद ने इस दुर्बलता को समझा तथा इस्लाम और ईसाई धर्म की भांति हिंदू धर्म को दृढ़ता प्रदान की। इसी कारण उन्होंने वेदों को सत्य ज्ञान का एकमात्र आधार बताया जिसके कारण आर्य समाज हिंदू धर्म का प्रबल समर्थक बना और सैनिक हिंदुत्व कहलाया।
 स्वामी दयानंद के आर्य समाज ने हिंदू धर्म को सरल बनाया और उसकी श्रेष्ठता में विश्वास उत्पन्न किया। स्वामी दयानंद ने वेदों की व्याख्या इस प्रकार की, जिससे वेद अनेक वैज्ञानिक, सामाजिक राजनीतिक एवं आर्थिक सिद्धांतों के स्रोत माने जा सकते हैं।उन्होंने कहा कि कोई भी ऐसा ज्ञान नहीं है जिसे हम वेदों से प्राप्त नहीं कर सकते।
 हिंदू केवल अपने सत्य ज्ञान को भूल गए हैं और यदि वे वेदों का अध्ययन करेंगे तो उन्हें संसार का संपूर्ण ज्ञान वेदों में प्राप्त हो जाएगा। इस प्रकार हिंदुओं को धर्म के विषय में ही नहीं अपितु राजनीतिक आर्थिक और धार्मिक धारणाओं के लिए भी इस्लाम और ईसाई धर्म या सभ्यता की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है। स्वामी दयानंद और उनके आर्य समाज ने उक्त विश्वास तथा हिंदू धर्म और वेदों की श्रेष्ठता के आधार पर  हिंदू धर्म को इस्लाम और ईसाई धर्म के आक्रमणों से बचाने में सफलता पायी। आर्य समाज ने इस्लाम और ईसाई धर्म प्रचारकों पर जो हिंदू धर्म का मजाक उड़ाते थे, कठोरता से प्रहार किया। 
स्वामी दयानंद सरस्वती ने शुद्धि आंदोलन चलाया सल्तनत काल तथा मुगल काल में करोड़ों हिंदू मुसलमान बना लिए गए थे, हिंदुओं में यह प्रथा थी कि जो व्यक्ति एक बार मुसलमान बन जाता था, वह फिर कभी लौट कर हिंदू समाज में नहीं आ सकता था। स्वामी दयानंद ने ऐसे लोगों के लिए हिंदू समाज के द्वार खोल दिए उन्होंने कहा कि जो मुसलमान या ईसाई फिर से हिंदू धर्म को अंगीकार करना चाहते हैं तो उनका स्वागत किया जाना चाहिए। असल में स्वामी जी का मुख्य उद्देश्य हिंदू धर्म और समाज की अन्य धर्मों के आक्रमणों से रक्षा करना था। शीघ्र ही उन्होंने आर्य समाज के माध्यम से जो भी व्यक्ति ईसाई और इस्लाम धर्म को छोड़कर हिंदू धर्म को स्वीकार करना चाहते थे  उसकी शुद्धि करके उसे हिंदू धर्म में सम्मिलित करना आरंभ कर दिया। अपने इस कार्य का पक्षपोषण आर्य समाज ने वेद और ऐतिहासिक परंपराओं के आधार पर किया।
 ईसाई धर्म के प्रचार का प्रभाव अधिकांशतः निर्धन अशिक्षित और भारत की पिछड़ी हुई या अस्पृश्य जातियों पर पड़ा था और ऐसे हिंदू बहुत बड़ी संख्या में ईसाई बन गए थे। उन्हें शुद्धि आंदोलन के आलोक में हिन्दू धर्म में पुनः सम्मिलित किया।  बड़े पैमाने पर मतांतरित व्यक्तियों को हिंदू बनाने के कारण स्वामी दयानंद सरस्वती को मारने के लिए भी विभिन्न षड्यंत्र रचे गए और इसी के चलते उन्हें एक वेश्या के माध्यम से दूध में विष मिलवा कर दिलवाया गया, जिससे स्वामी दयानंद सरस्वती का 30 अक्टूबर सन् 1883 में दुखद निधन हुआ। 
स्वामी दयानंद सरस्वती के लक्ष्य बहुआयामी थे, राजनीतिक जागृति में भी उनका महती योगदान है। उन्होंने ही सर्वप्रथम स्वराज्य शब्द का प्रयोग किया था, वह प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना तथा स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना सिखाया। वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया। 
वस्तुतः कांग्रेस में  उग्रवादी भावना के आरंभ होने का कारण हिंदू धर्म की भावना थी और इसमें संदेह नहीं कि आर्य समाज ने उस भावना के निर्माण में असीम सहयोग दिया था। इस प्रकार स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके आर्य समाज ने हिंदू धर्म और संस्कृति की श्रेष्ठता का दावा करके हिंदू सम्मान और गौरव की रक्षा की। हिन्दू धर्म में आत्मविश्वास और स्वाभिमान को पुनर्जीवित करने में अपना अनमोल योगदान दिया। इससे भारत में राष्ट्रवाद की प्रबल भावना पल्लवित और पुष्पित हुई। स्वामी दयानंद सरस्वती के विचार और उनका शुद्धि आंदोलन वर्तमान परिस्थितियों में प्रासंगिक और मार्गदर्शी है। 
 
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