उन्नीसवीं सदी में धार्मिक क्षेत्र में श्री रामकृष्ण परमहंस का स्थान सर्वोपरि था। वे एक रहस्यमय और महान योगी थे, जिन्होंने सरल शब्दों में अध्यात्म की गहरी बातें सामान्य जनों तक पहुंचाई। जब हिन्दू धर्म संकट से गुजर रहा था, तब श्री रामकृष्ण परमहंस ने उसे नयी दिशा दी और उसमें नयी उम्मीद जगाई। कहा जाता है कि वे भगवान विष्णु के अवतार थे और उन्होंने सभी धर्मों को एक मानते हुए उनके एकता पर बल दिया। उनका मानना था कि सभी धर्मों का आधार प्रेम है, और उन्होंने यह सिद्ध किया कि ईश्वर के दर्शन संभव हैं। इसके लिए उन्होंने कठोर साधना की और यह निष्कर्ष निकाला कि सभी धर्म सत्य हैं और उनमें कोई भेद नहीं है; वे ईश्वर तक पहुंचने के विभिन्न मार्ग मात्र हैं।
श्री रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18 फरवरी, 1836 को पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के कामारपुकुर गांव में एक गरीब और धार्मिक ब्राह्मण परिवार में हुआ। जन्म के समय ही ज्योतिषियों ने उनके महान भविष्य की भविष्यवाणी की, जिसे सुनकर उनकी माता चन्द्रा देवी और पिता खुदिराम अत्यंत प्रसन्न हुए। बचपन में उन्हें गदाधर नाम से पुकारा जाता था। महज पांच साल की उम्र में वे अद्भुत प्रतिभा और स्मरणशक्ति के धनी थे। वे रामायण, महाभारत, देवी-देवताओं की स्तुतियां और अपने पूर्वजों के नाम आसानी से कंठस्थ कर लेते थे। 1843 में उनके पिता का निधन हुआ, जिसके बाद घर की जिम्मेदारी उनके बड़े भाई रामकुमार पर आ पड़ी।
रामकृष्ण का यज्ञोपवीत संस्कार होने पर एक अद्भुत घटना घटी। एक लुहारिन, जिसने रामकृष्ण की जन्म से ही सेवा की थी, उनसे प्रार्थना की थी कि वे अपनी पहली भिक्षा उसके पास से प्राप्त करें। रामकृष्ण ने वचन दिया था, और यज्ञोपवीत संस्कार के बाद, परिवार के विरोध के बावजूद, उन्होंने प्रथा के खिलाफ जाकर अपना वचन पूरा किया। यह घटना उनकी आध्यात्मिक दूरदर्शिता और सत्य के प्रति प्रेम को दर्शाती है।
रामकृष्ण के बड़े भाई उन्हें कलकत्ता ले आए और दक्षिणेश्वर में रखा। यहां का शांतिपूर्ण वातावरण उनके साधना के लिए अनुकूल था। 1858 में उनका विवाह पांच साल की शारदा देवी से हुआ। जब शारदा देवी ने 18 साल की उम्र में प्रवेश किया, तब रामकृष्ण ने उन्हें षोड़शी देवी के रूप में पूजा।
रामकृष्ण के जीवन में कई गुरु आए, लेकिन दो प्रमुख गुरुओं का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। एक थीं भैरवी, जिन्होंने उन्हें कापालिक तंत्र की साधना करायी, और दूसरे थे श्री तोतापुरी, जो एक सिद्ध तांत्रिक और हठ योगी थे। उन्होंने रामकृष्ण को निराकार परमशिव के ध्यान में संलग्न करने के लिए एक गहरी साधना करायी, जिसके परिणामस्वरूप रामकृष्ण ने अपनी पहली समाधि प्राप्त की।
रामकृष्ण का जीवन अत्यंत सरल था, और उनकी शख्सियत में निश्चलता, भोलेपन और त्याग था। जब कोई भी उनके पास जाता, तो वे उनके गहन दार्शनिक सवालों का उत्तर सरल और प्रभावशाली ढंग से देते थे, जिससे हर कोई उनका मुरीद हो जाता। इस कारण दुनियाभर के विद्वान और बड़े लोग जब उनसे मिलते, तो अपनी सारी विद्वता को भूलकर उन्हें अपना गुरु मान लेते थे।
रामकृष्ण के प्रमुख शिष्यों में स्वामी विवेकानन्द, दुर्गाचरण नाग, स्वामी अद्भुतानंद, स्वामी ब्रह्मानंद, स्वामी अद्यतानंद, स्वामी शिवानंद, स्वामी प्रेमानंद और स्वामी योगानंद थे। 15 अगस्त 1886 को उन्होंने इस लोक को अलविदा लिया, और उनके जाने से उनके भक्तों और अनुयायियों के दिलों में एक गहरा दुख छा गया।
रामकृष्ण परमहंस एक महान योगी, साधक और विचारक थे, जिन्होंने जीवन भर अध्यात्म और साधना की ऊंचाइयों को छुआ। उन्होंने समाज में मानवता, समानता और सेवा की भावना को बढ़ावा दिया। उनका जीवन इस बात का प्रतीक था कि धर्म किसी एक पंथ या स्थान का बंधक नहीं है, बल्कि यह सार्वभौमिक है। उनके विचारों ने भारतीय समाज में राष्ट्रवाद की भावना को आगे बढ़ाया और जातिवाद व धार्मिक पक्षपात को नकारा। उनके विचारों को फैलाने के लिए उनके शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने 1 मई 1897 को बेलुड़ में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। यह मिशन मानवता के कल्याण के लिए कार्य करता है, विशेष रूप से गरीबों और दलितों के उत्थान के लिए।