ऋणकर्ता पिता शत्रुर्माता च व्यभिचारिणी।
भार्या रूपवती शत्रुः पुत्र शत्रु र्न पंडितः ॥ 11 ॥
आचार्य चाणक्य यहाँ शत्रु के स्वरूप की चर्चा करते हुए कहते हैं कि ऋण करनेवाला पिता शत्रु होता है। व्यभिचारिणी मां भी शत्रु होती है। रूपवती पत्नी शत्रु होती है तथा मूर्ख पुत्र शत्रु होता है।
भाव यह है कि पुत्र के लिए कर्जा छोड़ जानेवाला पिता शत्रु के समान होता है। बुरे चाल-चलनवाली माँ भी सन्तान के लिए शत्रु के समान होती है। अधिक सुन्दर पत्नी को भी शत्रु के समान समझना चाहिए तथा मुर्ख पुत्र भी माँ-बाप के लिए शत्रु के ही समान होता है।
वस्तुतः कर्जा लेकर घर का खर्च चलानेवाला पिता शत्रु होता है, क्योंकि उसके मर जाने पर उस कर्ज की अदायगी सन्तान को करनी पड़ेगी। व्यभिचारिणी माँ भी शत्रु के रूप में निन्दनीय और त्याज्य है, क्योंकि वह अपने धर्म से गिरकर पिता और पति के कुल को कलंकित करती है। ऐसी माँ के पुत्र को सामाजिक अपमान सहना पड़ता है। इसी प्रकार जो स्त्री अपने सौन्दर्य का अभिमान करके पति की उपेक्षा करती है, उसे भी शत्रु ही मानना चाहिए। क्योंकि वह कर्तव्यविमुख हो जाती है। मूर्ख पुत्र भी कुल का कलंक होता है। वह भी त्याज्य है। इसलिए अपने उद्यम से परिवार का निर्वाह करनेवाला पिता, पतिव्रता माता और अपने रूप और सौन्दर्य के प्रति अहंकार न रखनेवाली स्त्री और विद्वान् पुत्र ही हितकारी होते हैं।