हर वर्ष 25 सितंबर को हम उस महान चिंतक, समाजहितैषी नेता और भारतीय मूल्यों के संवाहक पंडित दीनदयाल उपाध्याय को कृतज्ञता से याद करते हैं। उनका जीवन राष्ट्र सेवा, सांस्कृतिक पुनर्जागरण और आत्मनिर्भर भारत के सपने को साकार करने के लिए समर्पित रहा। उन्होंने न केवल भारतीय राजनीति को एक वैचारिक गहराई दी, बल्कि विकास के लिए एक ऐसा मार्ग सुझाया, जो पूरी तरह से भारतीयता की आत्मा से जुड़ा था।
उत्तर प्रदेश के नगला चंद्रभान गांव में जन्मे दीनदयाल उपाध्याय का प्रारंभिक जीवन कई कठिनाइयों से भरा रहा। माता-पिता का बचपन में ही देहांत हो गया, लेकिन इन कठिन हालातों ने उन्हें कमजोर नहीं किया। उन्होंने आत्मबल, परिश्रम और शिक्षा के माध्यम से खुद को गढ़ा। सीकर से हाई स्कूल में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर स्वर्ण पदक हासिल किया। बाद में पिलानी, कानपुर और आगरा जैसे संस्थानों में शिक्षा प्राप्त की। जीवन में कई बाधाएं आईं, परंतु उन्होंने कभी अध्ययन और चिंतन से संबंध नहीं तोड़ा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ने के बाद उन्होंने राष्ट्र सेवा को जीवन का लक्ष्य बना लिया। संघ कार्य में सक्रिय रहते हुए वे भारतीय जनसंघ के निर्माण और विस्तार में प्रमुख भूमिका निभाने लगे। उनका सबसे बड़ा बौद्धिक योगदान "एकात्म मानवदर्शन" रहा, जिसे उन्होंने 1965 में प्रस्तुत किया। यह विचारधारा भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संरचना को समझते हुए एक समग्र, संतुलित और मानवीय विकास मॉडल की बात करती है—जहां व्यक्ति, समाज और प्रकृति में तालमेल हो और पश्चिमी विचारों की अंधी नकल से परहेज़ किया जाए।
राजनीति से परे उनका लेखन और पत्रकारिता में भी गहन योगदान रहा। उन्होंने 'राष्ट्रधर्म' मासिक पत्रिका की शुरुआत की, 'पांचजन्य' साप्ताहिक और 'स्वदेश' दैनिक के माध्यम से राष्ट्रवादी विचारों को जन-जन तक पहुँचाया। उन्होंने ऐतिहासिक विभूतियों जैसे चंद्रगुप्त मौर्य और आदि शंकराचार्य पर रचनाएँ लिखीं और संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार की जीवनी का मराठी से हिंदी में अनुवाद भी किया।
11 फरवरी 1968 को मुगलसराय स्टेशन के पास उनकी मृत्यु रहस्यमय परिस्थितियों में हुई। यह घटना आज भी अनेक सवालों के घेरे में है, लेकिन उनका कार्य और दर्शन आज भी जीवित हैं। भारतीय जनता पार्टी सहित कई संगठनों के मूल विचारों में उनके सिद्धांत गहराई से समाहित हैं।
आज जब देश आत्मनिर्भर भारत की ओर कदम बढ़ा रहा है, स्थानीय संसाधनों, संस्कृति और नैतिक मूल्यों पर जोर दे रहा है, तब पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचार पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गए हैं। उन्होंने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी, जहां विकास का लक्ष्य केवल भौतिक उन्नति नहीं, बल्कि सांस्कृतिक चेतना, सामाजिक समरसता और मानवीय गरिमा की स्थापना हो।
इस पावन दिन पर हम उन्हें श्रद्धा से नमन करते हैं। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि व्यक्ति भले ही नश्वर हो, पर विचार और आदर्श कालजयी होते हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का चिंतन आज भी भारत को दिशा दिखा रहा है — एक प्रकाश स्तंभ की तरह।
