इतिहास में कई ऐसे महान व्यक्तित्व हुए जिन्होंने देश के सामाजिक उत्थान और जनकल्याण के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। ऐसे ही एक प्रमुख सुधारक राजा राममोहन राय थे, जिन्होंने अपने जीवन को लोगों को जागरूक करने, महिलाओं की स्थिति सुधारने और समाज सेवा में समर्पित कर दिया। इसलिए इतिहास में जब भी आदर्श पुरुषों का नाम आता है, उनका नाम हमेशा शामिल रहता है।
राजा राममोहन राय का जन्म 12 मई 1772 को बंगाल के हुगली जिले के राधानगर गाँव में हुआ था। उनके माता-पिता का नाम तैरिणी और रामकांत था और उनका परिवार वैष्णव संप्रदाय का था। उस समय बाल विवाह का प्रचलन था, इसलिए उनकी शादी नौ वर्ष की उम्र में हुई। पहली पत्नी की मृत्यु एक वर्ष बाद हो गई। दस वर्ष की उम्र में दूसरी शादी हुई, जिससे दो पुत्र पैदा हुए। बाद में तीसरी विवाह भी हुआ, लेकिन उनकी तीसरी पत्नी भी ज्यादा समय तक जीवित नहीं रह सकीं।
उन्होंने मात्र 15 वर्ष की आयु में अरबी, फ़ारसी, बंगाली और संस्कृत भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया था। प्रारंभिक शिक्षा अपने गाँव में ही प्राप्त की। बाद में बिहार के पटना स्थित मदरसे में फारसी और अरबी सीखी। 22 वर्ष की उम्र में अंग्रेज़ी भाषा भी सीख ली। इसके बाद काशी (वाराणसी) गए, जहां उपनिषद और वेदों का गहरा अध्ययन किया। साथ ही इस्लाम धर्म के कुरान और ईसाई धर्म के बाइबल का भी अध्ययन किया।
उनके पिता कट्टर वैष्णव ब्राह्मण थे, लेकिन उन्होंने धार्मिक अंधविश्वास और कुरीतियों का विरोध किया। 14 वर्ष की उम्र में संन्यास लेने की इच्छा जताई, पर माता ने मना किया। पिता के साथ मतभेद के कारण एक बार घर छोड़कर हिमालय की यात्रा की। घर लौटने पर भी उनकी सोच में कोई बदलाव नहीं आया।
1805 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी जॉन दीगबॉय से पश्चिमी संस्कृति और साहित्य का परिचय मिला। इसके बाद दस वर्षों तक कंपनी में अधिकारी के सहायक के रूप में कार्य किया। 1809 से 1814 तक राजस्व विभाग में सेवा दी।
उन्होंने फारसी, बंगाली, हिंदी और अंग्रेज़ी में कई पत्रिकाएं प्रकाशित कीं। 1815 में ब्रह्म समाज की स्थापना की, जो ज्यादा समय तक स्थिर नहीं रह पाया। ईसाई धर्म में भी रुचि थी। 1820 में "मसीह की नैतिक शिक्षाएँ" नामक पुस्तक प्रकाशित की। इसके अलावा "ईशोपनिषद", "कठोपनिषद", "मुंडक उपनिषद" और "शांति और सुख की राह" जैसी रचनाएँ लिखीं। कई समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में लेख भी दिए।
1803 में उन्होंने हिंदू धर्म में फैली कुरीतियों का विरोध किया और बताया कि सृष्टि का एक ही निर्माता है। 1814 में "आत्मीय सभा" की स्थापना की, जिसका उद्देश्य धार्मिक एवं सामाजिक सुधार था। महिलाओं के अधिकारों के लिए अभियान चलाए, जैसे विधवा विवाह को बढ़ावा देना और संपत्ति के हक दिलाना। सती प्रथा, बहुविवाह और बाल विवाह के कड़े विरोधी थे। महिलाओं की शिक्षा के समर्थक रहे।
1822 में अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल की स्थापना की। 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना की, जिसका उद्देश्य धार्मिक ढोंग और ईसाई प्रभाव को समझना था। उनके प्रयासों से 1829 में सती प्रथा पर रोक लगाई गई।
उन्होंने कोलकाता में हिंदू कॉलेज की स्थापना की, जो शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी संस्थान बना। विद्यार्थियों को विज्ञान जैसे रसायन विज्ञान, भौतिकी और वनस्पति विज्ञान पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया। 1815 में भूगोल, गणित और लैटिन भाषा पढ़ाने का प्रस्ताव रखा, जिसे अंग्रेज़ सरकार ने स्वीकार किया, लेकिन मृत्यु तक इसे लागू नहीं कर सकी।
27 सितंबर 1833 को ब्रिस्टल के पास मेनिनजाइटिस से उनका निधन हुआ। 1829 में राजा अकबर द्वितीय ने उन्हें "राजा" की उपाधि दी। 1824 में वेद और उपनिषदों के संस्कृत से हिंदी, अंग्रेज़ी और बंगाली अनुवाद के लिए Société Asiatique द्वारा सम्मानित किया गया।
