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"संघ शताब्दी वर्ष के आलोक में एक सिंहावलोकन "

Date : 30-Sep-2025
सन् 1925 की विजयादशमी के दिन डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना उस भावभूमि पर की, जब भारत स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत था। डॉ. हेडगेवार जन्मजात देशभक्त थे। बचपन से ही उनमें राष्ट्रीयता की चिंगारी प्रकट थी। वे कोलकाता में मेडिकल की पढ़ाई के दौरान अनुशीलन समिति से जुड़े, जिनका उल्लेख त्रिलोक्यानाथ चक्रवर्ती और रासबिहारी बोस की पुस्तकों में आता है। उनका कोड-नाम ‘कोकेन’ था अथवा अनुशीलन समिति के बन्धु /भगिनी उनको कोकीन नाम से स्मरण करते थे । स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी के साथ उन्होंने अनुभव किया कि यदि समाज संगठित नहीं होगा, राष्ट्रीय एकात्मता से गुंथा नहीं होगा, चरित्र सम्पन्न एवं स्वार्थ -खुदगर्जी से परे नहीं होगा तो स्वाधीनता प्राप्त तो होगी पर स्वतंत्रता अधूरी रहेगी। इसी पवित्र उद्देश्य से उन्होंने संघ का बीजारोपण किया।

संघ का उद्देश्य - सम्पूर्ण हिन्दू समाज का संगठन
संघ का लक्ष्य सम्पूर्ण समाज का संगठन है। "हिन्दू" शब्द यहाँ किसी विरोध का प्रतीक नहीं, बल्कि समावेश और समन्वय का सूचक है। दादाराव परमार्थ ने कहा था कि “RSS is an evolution of life mission of Hindu Nation.” संघ व्यक्ति-निर्माण के माध्यम से समाज परिवर्तन और अंततः राष्ट्र निर्माण का मार्ग प्रस्तुत करता है। मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा—ये चार सूत्र संघ की संगठन-प्रक्रिया के मूल हैं।

संघ का विस्तार और सेवा
आज संघ देशभर में 51,740 स्थानों पर 83,129 दैनिक शाखाओं और 32,147 साप्ताहिक मिलनों के साथ कार्यरत है। साथ ही 1,29,000 सेवा कार्यों के माध्यम से स्वास्थ्य, शिक्षा, संस्कार और स्वावलंबन के क्षेत्र में योगदान दे रहा है। आपदा के समय—चरखी-दादरी विमान दुर्घटना, गुजरात और केरल की बाढ़, मोरबी और केदारनाथ जैसी त्रासदियों में संघ के स्वयंसेवकों ने बिना भेदभाव सेवा की है।

पंच-परिवर्तन की दिशा
संघ अपनी शताब्दी कार्य की यात्रा में पंच-परिवर्तन के माध्यम से समाज जागरण की दिशा तय कर रहा है—(1) सामाजिक समरसता, (2) पर्यावरण संरक्षण, (3) कुटुंब प्रबोधन, (4) स्व आधारित स्वदेशी जीवन, और (5) नागरिक कर्तव्यबोध - अनुशासन लोकमानस‌ में स्थाई व्याप्त हो। यह केवल वार्षिक कार्यक्रम मात्र नहीं, बल्कि भविष्य के भारत के प्रति स्पस्ट दिशा एवं मार्गदर्शन है।

संघ और स्वयंसेवक
संघ में अथवा संघ कार्य में कोई प्रलोभन नहीं है। “संघ में आओगे तो कुछ मिलेगा नहीं, जो है वह भी चला जाएगा।” यह भावना स्वयंसेवक को निःस्वार्थ सेवा हेतु प्रेरित करती है—“आत्मनो मोक्षार्थ, जगद्धिताय च।” यही कारण है कि संघ कार्य निरंतर बढ़ रहा है और स्वयंसेवक समन्वय और अनुशासन के आधार पर राष्ट्र-जीवन में परिवर्तनकारी भूमिका निभाते रहे हैं। जन जन के मन मन को संजोकर सुगन्धित लोकजीवन की माला समाज परिवर्तन के रूप में संघ एक शतकीय वर्षों से पिरो रहा है।

महिलाएँ और संघ
संघ कार्य में महिलाएँ राष्ट्र सेविका समिति के रूप में सीधे कार्य करती हैं। इसके अतिरिक्त अनेक संघ विचार कार्य से अभिप्रेरित संगठनों का नेतृत्व महिलाएँ ही करती हैं। वहाँ पर 35% से 60% तक महिलाएं सक्रिय कार्यरत हैं। संघ विचार और कार्य स्त्री-पुरुष दोनों को परिवार, समाज के प्रत्येक समूह एवं रूप में परस्पर पूरक मानता है।

सांस्कृतिक एकता और सामाजिक समरसता
संघ का विश्वास है कि इस देश की मूल चैतन्य एवं दर्शन समन्वय में है, संघर्ष में नहीं। “मानव के रूप में मुस्लिम और हिंदू अलग नहीं, केवल पूजा की विधि अलग है।” भारत का डीएनए 40,000 वर्षों से सभी का एक ही है। जाति- पाँति, वाद - विवाद, और किसी भी प्रकार का भेदभाव देश की प्रगति में बाधक है। मंदिर, पानी और श्मशान—तीनों में भेदभाव का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। समाज की दुर्बलता दूर करने के लिए आरक्षण और सामाजिक उन्नति का दृष्टिकोण संवेदनशील होना चाहिए।

विचार : विकास, धर्म और स्वदेशी
संघ मानता है कि उपभोक्तावाद और भौतिकवाद की अंधी दौड़ से सात सामाजिक पाप जन्म लेते हैं—जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा था। भारत धर्मप्राण राष्ट्र है और उसका वैश्विक दायित्व धर्म-संतुलन और शांति का मार्गदर्शन करना है। स्वदेशी और आत्मनिर्भरता को संघ विकास की कुंजी मानता है।

शिक्षा और परिवार
संघ गुरुकुल परंपरा, भारतीय भाषाओं और संस्कृत को भारत की शिक्षा का मूल मानता है। परिवार प्रबोधन पर विशेष बल देते हुए वह कहता है कि सप्ताह में एक बार परिवार का सामूहिक भोजन, संवाद और संस्कार होना चाहिए। बच्चों को भारत का गौरवशाली अतीत, सतत संघर्ष का कालखण्ड और समाज की आत्मशातीकरण की पाचन शक्ति से युक्त वास्तविकता दिखाना आवश्यक है।

संविधान, सुरक्षा और जनसंख्या
संविधान का पालन सभी के लिये समान अनिवार्य है। नियम, कानून, कर्तव्य और अधिकार सभी के समान होने चाहिए। जनसंख्या असंतुलन और घुसपैठ राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चुनौती हैं, जिन पर संघ अपना स्पस्ट, सजग दृष्टिकोण एवं मत रखता है। स्वयं उसका ईमानदारी से पालन करता है। ‌सभी पालन करें इसके लिये वातावरण निर्मिति हेतु कार्यरत है।

संघ का विरोध और भविष्य
संघ ने स्वतंत्रता-पूर्व से लेकर आज तक तीव्र विरोध झेला है। परंतु सत्य, धैर्य और अनुशासन के आधार पर वह आगे बढ़ा। 1948 में जिन जयप्रकाश नारायण ने संघ का कार्यालय जलाना चाहा, आपातकाल में निकट से देखने के बाद वही संघ के प्रशंसक बने। यह संघ की तपस्या की शक्ति है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण उपलब्ध हैं। इसलिये संघ बार बार आह्वान करता है कि धारणाओ के आधार पर नहीं निकट से समझें, परखे और अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त हो।

संघ की प्रार्थना का अंतिम वाक्य है—“भारत माता की जय।” यही संघ का जीवन-मंत्र है। शताब्दी वर्ष केवल एक संगठन का उत्सव नहीं, बल्कि भारत के आत्मविश्वास की गाथा है। यह संघ के कार्य की शताब्दी है। डॉ. हेडगेवार से लेकर आज के सरसंघचालक तक यह संदेश स्पष्ट है कि परमवैभवी भारत बनना इसकी नियति है और संघ इस ईश्वरीय योजना को भारत में साधक रूप में समाज संगठन कर साकार कर रहा है।
kailash_chandra 

 

 
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