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"अधर्म,असत्य,अहंकार और आसुरी शक्तियों के पराभव का पर्व विजयादशमी"

Date : 30-Sep-2025

 "सुर -असुर से परे,अधर्म और अहंकार की पराजय का संदेश देता है विजयादशमी पर्व " 
 (विजयादशमी पर्व पर सादर समर्पित )


ऐतिहासिक और पौराणिक साक्ष्यों के आलोक में संपूर्ण विश्व में सनातन एकमात्र ऐंसा धर्म है जहां भगवान् ने कभी सुर - असुर, ऋषि - मुनियों, दैत्य - राक्षसों और स्त्री-पुरुष को वरदान और आशीर्वाद देने में कभी भेद नहीं किया।जिसने जैंसी तपस्या की उसे वैंसा ही वरदान मिला। भगवान् से प्राप्त वरदान और आशीर्वाद का जब तक सदुपयोग हुआ तब तक कुशल क्षेम रहा परंतु जब दुरुपयोग हुआ तब भी भगवान् ने वरदान को यथा स्थिति में रखते हुए ऐंसी लीला रचते थे कि वरदान पर आंच भी न आए और आसुरी प्रवृत्ति का भी अंत हो जाए।

 यह बात वामपंथी , ईसाई, मुस्लिम और तथाकथित सेक्युलर विद्वानों की समझ से परे है। इसलिए इन तथाकथित विद्वानों ने हिंदुत्व क्षत विक्षत करने के लिए भारतीयों को छलपूर्वक भड़का कर धर्म, वर्ण,और जाति का भेद उपजाकर संघर्ष को पैदा किया।

 यहाँ सुर-असुर को लेकर विमर्श करना इसलिए समीचीन है क्योंकि विषय विजयादशमी का पर्व है। अब देखिए न वामियों, ईसाई, मुस्लिम और तथाकथित सेक्यूलरों विद्वानों ने सुर-असुर की अवधारणा को समझे बिना उसकी आर्य - अनार्य के रुप में व्याख्या कर देश के समाज को दो भागों में विभाजित करने का कुत्सित प्रयास किया है तथा यह दिखाया है  कि भारत देश में हमेशा असुरों के साथ अन्याय किया गया, उन्हें छल पूर्वक मारा गया और दलितों, दमितों के साथ नस्लीय तथा जातिगत रुप से परिभाषित कर वैमनस्यता पैदा की है, परंतु यह कभी स्पष्ट करने की कोशिश नहीं की गई कि भगवान् ने असुरों को भी सम भाव से आशीर्वाद दिया और उन्हें मनोवांछित वरदान भी प्रदान किया और उनकी रक्षा भी की है।  

यद्किंचित यह भी कि महान् समाज सुधारक महात्मा जोतिबा फुले जी की पुस्तक "गुलामगिरी" में लिखी बातें उनके दृष्टिकोण से सही हो सकती हैं परंतु व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाए तो उसका दूसरा पक्ष भी है जिसे शोध आलेख में उद्धृत करने का प्रयास किया है। 

 असुरराज बलि  को भगवान् विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त था परंतु वामन अवतार लेकर भगवान् विष्णु ने उनका समूल विनाश नहीं किया वरन् पाताल लोक सौंपा और माँ लक्ष्मी ने राजा बलि को रक्षा सूत्र बांधकर अपना भाई बनाया इसी के साथ रक्षाबंधन का महान् पर्व भी प्रारंभ हुआ।

 उद्भट विद्वान रावण  भी महादेव और ब्रम्हा के आशीर्वाद से ही महाबली बना था। रावण ने शिव तांडव स्रोत लिखा था जो हिन्दुओं का कंठहार है। ऐंसे सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। भारत में सुर और असुर का विभाजन प्रवृत्तियों के आधार पर हुआ है परंतु भेदभाव कभी नहीं हुआ।

 कभी - कभी ऐंसे अवसर भी सामने आए जब ईश्वर विभिन्न स्वरूपों में सुर और असुरों को बचाने के लिए आमने-सामने आए हैं। वहीं दूसरी ओर भगवान् ब्रम्हा के गलत आचरण के कारण, भगवान् शिव के आदेश पर अंशावतार काल भैरव ने ब्रम्हा का पांचवां सिर काट दिया था। 

बाणासुर के प्रकरण में   महादेव स्वयं श्रीकृष्ण के विरुद्ध बाणासुर की रक्षा के लिए सामने आ गए थे और युद्ध भी हुआ परंतु अंत में सब कुशल मंगल हुआ। 

अब महर्षि कश्यप के पुत्र प्रवृत्ति के अनुसार हिरण्यकश्यप असुर रुप में परिभाषित किए गए, उन्हें ब्रह्मा का अनूठा वरदान प्राप्त हुआ था परंतु जब वे वरदान का दुरुपयोग करने लगे तब उनके पुत्र भक्त प्रह्लाद के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह का अवतार लिया। 

महिषासुर हिन्दू धर्म में एक असुर था और वह ब्रह्म ऋषि कश्यप और दनु का पोता और रम्भ का पुत्र तथा महिषी का भाई था।महिषासुर ब्रह्मा का महान् उपासक था और उसने वरदान प्राप्त कर लिया था कि उसे न देवता और न ही असुर मार सकते थे। परंतु अधर्म और अहंकार के कारण माँ दुर्गा ने उसका वध किया। 

 विजयादशमी पर्व का अद्भुत वृतांत का उद्देश्य केवल धार्मिक नहीं है, वरन् अहम की मनोवृत्ति को साझा करना है कि -अहम ही,वहम है और अहम ही सर्वनाश की जड़ है। 

विजयादशमी पर्व के आलोक में,मेरा विचार है कि "सत्य और असत्य का अद्वैत ही सत्य है, असत्य एक भ्रम है और असत्य का असत्य होना भी सत्य होना चाहिए, नहीं तो वह असत्य भी नहीं हो सकता, इसीलिए हर अवस्था में सत्य ही जीतता है।" यही धर्म की परिभाषा है। यही विजयादशमी है। 

शक्ति और शस्त्र का भी अद्वैत भाव है।विजयादशमी  पर्व के दो मूलाधार हैं। प्रथम माँ दुर्गा ने आसुरी प्रवृत्ति महिषासुर के साथ भीषण संग्राम किया और 9 रात्रि तथा दसवें दिन उसका वध करके पृथ्वी लोक एवं देवलोक को मुक्ति दिलाई। द्वितीय श्री राम और परम ज्ञानी रावण के मध्य युद्ध का अंतिम दिन था। सभी देवी देवताओं चिंता ग्रस्त थे।महापंडित रावण को महादेव का आशीर्वाद और अमरत्व प्राप्त था, और उस से भी बड़ी बात यह थी कि वह माँ चंडी की गोद में बैठकर युद्ध कर रहा था। इसलिए श्रीराम की विजय में संशय उत्पन्न हो गया था। एतदर्थ श्री राम ने शक्ति के 9 स्वरुपों की 9 दिन उपासना की थी। 

अंतिम युद्ध के दिन ऋषि अगस्त्य ने श्री राम की विजय हेतु "आदित्य हृदय स्त्रोत" का अनुष्ठान कराया। तदुपरांत श्री राम ने अपनी विजय हेतु माँ चंडी का अनुष्ठान किया और 108 नीलकमल चढ़ाने के लिए एकत्रित किए। लेकिन रावण ने अपनी मायावी शक्ति से एक नीलकमल गायब कर दिया।

 पुष्पांजलि के समय एक पुष्प कम हो गया। तब राम ने कहा कि मेरी माँ कौशल्या बचपन से मेरे नेत्रों राजीव लोचन कहती है मुझे "कमल नयन नव कंच लोचन" भी कहा जाता है, इसलिए मैं अपने नेत्र को निकालकर अर्पित करता हूँ। जैंसे ही श्रीराम तीर को आँख के पास ले गये तभी आसमान में भयंकर गर्जना और प्रचंड हवाओं के आवेग के आलोक में माँ दुर्गा प्रकट हुईं और श्री राम का हाथ पकड़ लिया तथा विजयश्री का आशीर्वाद दिया। अंत में महादेव की पूजा अर्चना कर धनुष  प्राप्त कर युद्ध भूमि की ओर अग्रसर हुए।

 उधर महारथी रावण भी माँ चंडी का अनुष्ठान कर रहा था।ब्राह्मण गण प्रतिदिन मंत्रोच्चार कर रहे थे, महादेव के अवतार श्री हनुमान जी एक बालक के रूप में शामिल हो गये थे और उन्होंने ब्राम्हणों की खूब सेवा कर प्रसन्न कर लिया और वरदान स्वरुप केवल यह माँगा कि आप ब्राह्मण गण देवी की आराधना के समय मंत्र में शब्द "भूर्तिहरिणी" (पीड़ा हरने वाली)में "ह" अक्षर की जगह "भ" अक्षर का प्रयोग करें, फिर क्या था ब्राह्मणों ने, भूर्तिहरिणी की जगह "भूर्तिकरणी" (पीड़ा कारित करने वाली) शब्द का उच्चारण किया। जिससे देवी रुष्ठ हो गयीं और महारथी रावण की पराजय हुई। 

श्रीराम और रावण के मध्य 18 दिन और युद्ध के 84वें दिन (12 दिन विभिन्न अवसरों में युद्ध बंदी रही) कुल 72 दिन युद्ध हुआ।9 दिन के श्री राम - रावण युद्ध के अनिर्णीत युद्ध के उपरांत, श्री राम ने माँ चंडी के 9 स्वरूपों की 9 दिन पूजा की और 10वें दिन आशीर्वाद प्राप्त कर महारथी रावण का वध कर दिया। श्री राम ने नीलकंठ जी से विजय का आशीर्वाद लिया। 

अपरान्ह पहर में श्रीराम ने रावण के वध का निर्णय लिया और भगवान् नीलकंठ का आव्हान किया। नीलकंठ जी युद्ध भूमि में पहुँच गए श्रीराम ने दर्शन के उपरांत रावण का वध कर दिया।  आज भी एक कहावत प्रचलित है कि "नीलकंठ तुम नीले रहिये..
दूध भात का भोजन करियो.. हमरी बात राम से करियो"।

रावण महाज्ञानी महायोद्धा था इसलिये श्री राम ने लक्ष्मण से कहा कि जाओ और महापंडित से ज्ञान प्राप्त करो। लक्ष्मण, रावण के सिर के पास खड़े हो गए, रावण देखा तक नहीं, लक्ष्मण क्रोधित होकर लौटे और बोले कि रावण का अहंकार अभी भी नहीं गया। तब श्री राम ने लक्ष्मण से कहा अहंकार तो तुमको आ गया है, इसलिए तो तुम महापंडित के सिर के ओर जाकर ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हो।

 श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा "श्रद्धावान लभते ज्ञानम्" ज्ञान सिर उठाकर नहीं सिर झुकाकर प्राप्त किया जाता है। लक्ष्मण महापंडित के पांव की ओर गये तब महाज्ञानी रावण ने 3 ज्ञान की बातें बताईं। परम ज्ञानी और महारथी रावण ने लक्ष्मण सर्वप्रथम यह बताया कि "रामेश्वरम में श्री राम जब शिव लिंग की पूजा कर रहे थे तो अनुष्ठान का महापंडित मैं ही था और युद्ध के समय श्री राम को ब्राह्मण होने के नाते विजय श्री का आशीर्वाद भी दिया था।

 तदुपरांत महापंडित रावण ने 3 महत्वपूर्ण ज्ञान की बातें बताईं-प्रथम - शुभस्य शीघ्रम, द्वितीय - कभी प्रतिद्वंद्वी को कमजोर नहीं समझना चाहिए तृतीय - अपनी जिंदगी का सबसे गहरा रहस्य किसी को नहीं बताना चाहिए। अंत में यह कि विजयादशमी पर्व में परमज्ञानी और महारथी रावण के पुतले का दहन नहीं होता है,वरन् प्रतीकात्मक रुप से उसके आलोक में हम सभी में निहित आसुरी प्रवृत्ति का दहन है। 

डॉ.आनंद सिंह राणा
 
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